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“सिंधु घाटी सभ्यता केवल नगरीय जीवन और व्यापार तक सीमित नहीं थी, बल्कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, साहित्य और कला के क्षेत्र में भी इसकी उपलब्धियाँ उल्लेखनीय थीं। इस लेख में हम हड़प्पा सभ्यता के निवासियों की वैज्ञानिक तकनीक, अंकगणित, रसायन, औषधि-विज्ञान, स्थापत्य कला और मूर्तिकला की प्रगति का विश्लेषण करेंगे।”

1 अंकगणित:-
सिंधु घाटी सभ्यता को एक नगरीय सभ्यता कहा गया है। नगरीय सभ्यता का ही प्रमाण है कि इस संस्कृति के निर्माताओ ने विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति की थी। उत्खनन से प्राप्त पुरातात्विक वस्तुओ से यह सिद्ध हो जाता है कि सैंधव वासियो का ज्ञान, विज्ञान के क्षेत्र में काफी विकसित हो चुका था। परन्तु अपनी समकालीन सभ्यताओ मिश्र एवं सुमेरियन से प्राप्त पुरातात्विक वस्तुओ से प्रमाणित होता है कि निःसंदेह वे उपर्युक्त क्षेत्र में उनसे पिछड़े हुए थे, फिर भी उन्हें अंकगणित, रेखागणित, रसायन विज्ञान, औषधि विज्ञान, गृह एवं नक्षत्र जैसे विज्ञान के गूढ़ विषयो में जानकारी प्राप्त थी। सैंधववासियो की इस विज्ञान एवं तकनीकी को हम निम्नलिखित संदर्भो में उल्लेखित कर सकते है।—
माप-तौल की निश्चित प्रणाली से सैंधववासियो का परिचय तथा 16 के गुणज में उनके बाटो का घनाकार रूप मे निर्माण यह सिद्ध करता है कि वे अंकगणित और दशमवलब प्रणाली से पूर्ण परिचित थे।
2 रेखागणित:-
सैंधव मकानों के योजनाबद्ध तरीके से निर्माण और समकोण पर एक-दूसरे को काटती सड़के, संघोल का वृत्ताकार अग्निकुण्ड और कालीबंगा का आयताकार अग्निकुण्ड यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि इस संस्कृति के लोगो को रेखागणित का पूर्ण ज्ञान था।
3 रसायन विज्ञान:-
रसायन विज्ञान में उनके परिचय की पुष्टि लोथल के रंगाई के कुण्ड तथा अनेकानेक स्थानी पर पाए गये बर्तनों (मृदभाण्डों) की रंगयुक्त चित्रकारिता से यह सिद्ध होता है कि वे लोग विभिन्न तथ्यो के सामंजस्य से रंगों का निर्माण करने में मरमग थे। मरमग इसिलिये क्योंकि उनके मृदभाण्डों का रंग आज भी अपनी चमक को खोये बिना ही अपने निर्माताओ के ज्ञान को अभिव्यक्त कर रहा है।
4 धातु-कर्म:-
सैंधव समाज धातु कर्म के ज्ञान से भी परिचित थे। क्योंकि ताँबा और टीन को एक निश्चित अनुपात में मिलाकर उससे कांसे का निर्माण करना वे लोग जानते थे। वे इस कांसे से कलात्मक मूर्तियां तथा उच्च कोटि की चूंडियो के निर्माण से उनके धातु कर्म की जानकारी मिलती है। सोने एवं चाँदी के परिशोधन तथा उनसे आभूषण निर्माण की तकनीकी यह प्रमाणित करती हैं कि निश्चय ही धातु- कर्म के क्षेत्र में उत्खनन तथा उसका परिशोधन करने के लिए एक पेशेवर एवं दक्ष विद्वानों का एक वर्ग था।
5 औषधि-विज्ञान:-
सैंधववासियो को विभिन्न रोगों की पहचान भी थी तथा उनसे छुटकारा पाने के लिये वे औषधियों का निर्माण भी करते थे। मोहनजोदड़ो से शिलाजीत के व्यवहार का प्रमाण भी मिलता है। सिंधु सभ्यता वाले हरिण के सींग का चूर्ण बनाकर उससे भी दवा बनाते थे। समुद्र-फेन का भी दवा के रूप में प्रयोग किया जाता था। शल्य-चिकित्सा का भी उन्हें ज्ञान था। कालीबंगा और लोथल से खोपड़ी की शल्य-चिकित्सा के प्रमाण मिले हैं। इन प्रामाणिक तथ्यो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शल्य-चिकित्सा के क्षेत्र में भी उनका ज्ञान चरम पर था।
6 ग्रह-नक्षत्र:-
ग्रह एवं नक्षत्रों की गतिविधियों का अध्ययन करके सौधव निवासी मौसम एवं मानसून का निर्धारण करके, उसी के अनुरूप फसलो का उत्पादन करना जानते थे। इससे यह प्रमाणित होता है कि उन्हें ग्रह-नक्षत्रों के ज्ञान का भी अच्छा अनुभव रहा होगा।
7 विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी:-

शांति प्रिय यह समाज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का भी प्रयोग अपनी रक्षा करने के लिये भी सक्षम था क्योंकि वणाग्र की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि वे प्रेक्षेपास्त्र तकनीकी के अवश्य ही ज्ञाता रहे होंगे। कोटदीजि से पत्ति के आकार में वाण का पाया जाना यह प्रमाणित करता है कि घातक प्रहार करने के लिए वे हथियारों को विभिन्न रूप देने में सक्षम थे।
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8 भाषा एवं लिपि:-
सिंधु सभ्यता में भाषा एवं लिपि का विकास भी हुआ और इसी लिपि के द्वारा वे व्यापार-व्यवसाय का कार्य शुचारु रूप से करते थे। उत्खननों से अनेक लिपिबद्ध मोहरे एवं ताम्रपत्र प्राप्त हुए है लेकिन अभी तक यह लिपि संतोषजनक एवं सर्वमान्य ढंग से पढ़ी नही जा सकी है। परन्तु उत्खनन से प्राप्त अक्षर समूह से यह सिद्ध होता है कि मूल रूप से इस लिपि में 400 अक्षर थे। सर्वप्रथम फांसीसी विद्वान बेडरीच होर्ज़नी (Bedrich Horzny) इसे हित्ती लिपी से संबद्ध मानते है जबकि भारतीय इतिहासकार प्राणनाथ ने सैंधव लिपि को ब्राह्मी लिपि से विकसित बताया है। इस लिपि को प्रथम बार कम्प्यूटर की सहायता से पढ़ने का प्रयास रूसी इतिहासकार द्वारा किया गया। परंतु भारतीय विद्वान महादेवन ने इसे कम्प्यूटर से पढ़ने का दावा प्रस्तुत किया था। लेकिन उनके दावे को अभी भी मान्यता नही मिली। इसके अतिरिक्त मान्यता न प्राप्त करने वाले लोगो मे लोथल के उत्खनन कर्ता एस0 आर0 राव, बिहार सरकार के आई0ए0एस0 अधिकारी अरुण पाठक, तथा यही के पी0सी0एस0 अधिकारी के0 एन0 वर्मा शामिल है। सैंधव लिपि दाँए से बाँए पुनः बाँए से दाँए लिखी जाती है। उसके इसी अनवरत क्रम को वस्ट्रोफिदान के नाम से जाना जाता है। इसकी भाषा शैली, विषय वस्तुओ में अंकगणित, रेखागणित, चिकित्सा, यांत्रिकी, कृषि ज्ञान आदि संबंधित विषय-वस्तु को शामिल किया जा सकता है। निश्चय ही वे अपने स्कूल एवं कॉलेजो में उपर्युक्त विषयो की शिक्षा देते रहे होंगे।

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9 कला की प्रगति:-
ज्ञान-विज्ञान, भाषा एवं लिपि के साथ-साथ सिंधु सभ्यता वालो ने कला के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट उपलब्धियों को प्राप्त किया था। स्थापत्य कला, मूर्ति निर्माण कला, चित्रकला और ललित कला के क्षेत्रो में उन्होंने विशेष प्रगति की। जिसका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है—
(i) स्थापत्य कला:-
स्थापत्य कला के क्षेत्र ने सिन्धुवासियों ने कच्ची एवं पक्की दोनो ही प्रकार की ईंटो का एक निश्चित माप एवं आकार में अपने स्थापत्य के लिए प्रयोग किया। हड़प्पा संस्कृति की स्थापत्यकला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके निर्माण में एकरूपता तथा रूढ़िवादिता की भावना देखने को मिलती है। मोहनजोदड़ो में “L” प्रकार की ईंटो का प्रयोग, कुंओं में फन्नीदार ईंटो का प्रयोग, स्नानागार में स्वान प्रकार की ईंटो का प्रयोग तथा चन्हूदाड़ो में वक्राकार ईंटो का प्रयोग तथा कालीबंगा में चित्रित ईंटो के प्रयोग से उनके स्थापत्य निर्माण की कला-कौशल की जानकारी मिलती है।
(ii) मूर्ति कला:-
मूर्ति निर्माण में भी तत्कालीन विश्व मे उनका कोई सानी (विकल्प) नही था। इस काल की अधिकांश मूर्तियाँ मिट्टी की बनी है और उसके अंगों के निर्माण में विशेष सजकता का परिचय दिया गया है। पत्थर एवं धातुओ की मूर्तियों की कलात्मक अभिव्यक्ति से यह प्रमाणित होता है कि यहां का शिल्पकार ताँबे की छीनियो से पत्थर में सजीवता को उत्पन्न करने में सफल रहा है। कांसे की नृत्यांगना की मूर्तियों के अंगों के ऊभार में धातुओ में भी तत्कालीन शिल्पकार की कलात्मक अभिव्यक्ति जा संकेत करती है।
(iii) चित्रकारी:-
चित्रकारिता के क्षेत्र में भी ये पीछे न थे क्योंकि बर्तनों को रंगने के लिये उनके द्वारा लाल गुलाबी रंग का प्रयोग करके उस पर काले रंग से जिस प्रकार से फूल, पत्तियों, पशु-पक्षियों, तथा हृदय, मोर, मछली आदि का चित्रांकन किया गया है उसे देखकर स्टैला कैमरीश ने यह सत्य ही कह डाला कि “भारतीय कलात्मकता का प्राचीनतम इतिहास सौंधव घाटी तक जाता है।”
(iv) ललित कला:-
ललित कला के क्षेत्र में उनके ज्ञान की पुष्टि मोहनजोदड़ो की नृत्यांगना के उठते पैरो से तथा यही से प्राप्त मुहरों पर ढोल तथा वीणा के चित्रांकन से यह सिद्ध हो जाता है।
निष्कर्षतः-
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सिधु सभ्यता के निवासियों के ज्ञान-विज्ञान, विज्ञान प्रौद्योगिकी, भाषा-लिपि, स्थापत्य कला, मूर्तिकला, और ललित कला आदि के संक्षिप्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ज्ञान-विज्ञान और कला के क्षेत्र में यहां के लोगो का उल्लेखनीय योगदान रहा। सौन्दर्य और तकनीकी की दृष्टि से सिंधु सभ्यता की कला का भारतीय कला के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।
FAQs
प्रश्न:- सिंधु घाटी सभ्यता की वैज्ञानिक प्रगति (Scientific Progress) का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:- निवासियों ने शहर नियोजन, जल प्रबंधन और कृषि तकनीक में अद्भुत दक्षता दिखाई। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे नगरों में सुव्यवस्थित सड़कें, घरों में ठोस ईंट और नालियों का जाल पाया गया। पानी की आपूर्ति के लिए कुएँ, जलाशय और बड़े-बड़े टैंक बनाए गए थे। उन्होंने माप और मापने के उपकरणों का भी प्रयोग किया, जो उनके व्यापार और वास्तुकला में सहायक थे।
प्रश्न:- सिंधु घाटी सभ्यता की साहित्यिक प्रगति (Literary Progress) का वर्णन कीजिये ।
उत्तर:- हालांकि उनकी लिखावट पूरी तरह से अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी, लेकिन मिट्टी और स्टोन की मोहरों (Seals) पर अंकित चित्र और प्रतीक उनकी संचार कला और साहित्यिक अभिव्यक्ति का प्रमाण हैं। इन प्रतीकों से उनके सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन का पता चलता है।
प्रश्न:- सिंधु घाटी सभ्यता कलात्मक प्रगति (Artistic Progress) का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:- सिंधु घाटी के लोग मूर्तिकला, मूर्तियां और बर्तन कला में निपुण थे। प्रसिद्ध “नाचती हुई कन्या” कांस्य की मूर्ति और विभिन्न पशु-मूर्ति उनकी कलात्मक सृजनशीलता को दर्शाती हैं। मोहरों पर उकेरे गए जटिल चित्र और आभूषण उनके सौंदर्य बोध और कला प्रेम को उजागर करते हैं।
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