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सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीनतम और सबसे संगठित सभ्यताओं में से एक रही है, जिसका उत्कर्ष 2500 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व के बीच हुआ था। अपने उन्नत नगर नियोजन, विकसित सामाजिक व्यवस्था और कृषि, हस्तशिल्प तथा व्यापार में प्रगतिशीलता के लिए प्रसिद्ध, यह सभ्यता सामाजिक समरसता और आर्थिक समृद्धि का अद्भुत मिश्रण प्रस्तुत करती है। हड़प्पावासी अपने शांति, अनुशासन और नवाचारप्रिय जीवन के लिए आज भी इतिहास प्रेमियों और शोधकर्ताओं के लिए प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं।
उत्तर:- हड़प्पा संस्कृति से संबंधित स्थलों की खुदाई के आधार पर हम तत्कालीन सामाजिक जीवन की रूपरेखा प्रस्तुत कर सकते है। भवनों के आकार-प्रकार एवं आर्थिक विषमता के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं की ही तरह सिन्धु सभ्यता का समाज भी वर्ग-विभेद पर आश्रित था। उत्खनन में जहां कुछ धनिकों के मकान मिले है, वही गरीबो के भी। दुर्ग के साथ ही मजदूरों की झोपड़ियां (बैरक) भी मिले हैं। इनसे वर्ग-विभाजन स्पष्ट हो जाता है। इसी प्रकार धनिकों के गहने मूल्यवान धातु-पत्थरो के बने होते थे, तो गरीबो के गहने मिट्टी, सीप एवं घोंघे के। उत्खनित वस्तुओ एवं मूर्तियों को देखकर इस सभ्यता के निवासियों के रहन- सहन के स्तर के विषय मे भी जानकारी मिलती है। हड़प्पा सभ्यता के सामाजिक जीवन को हम निम्नलिखित सन्दर्भो के अंतर्गत व्यक्त कर सकते है—-
सामाजिक वर्गीकरण:-
सिन्धु घाटी सभ्यता का समाज कितने वर्गो में विभक्त था, इसकी जानकारी नही है। संभवतः समाज मुख्यतः चार वर्गो में विभक्त था– शासक, धनी या कुलीन वर्ग, मध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग। शासको के रहने के लिए दुर्ग बनाये जाते थे। धनी या कुलीन वर्ग के मकान बड़े एवं आरामदायक थे। मध्यम वर्ग के निवास अपेक्षाकृत कुछ छोटे थे। निम्न वर्ग बैरक सदृश्य मकानों या झोपड़ियों में रहता था। कुलीन वर्ग के अंतर्गत पुजारी, व्यापारी, योद्धा एवं सैनिक अधिकारियों को रख सकते है। मध्यम वर्ग में कृषक, छोटे व्यापारी, कारीगर लिपिक, चिकित्सक आदि आते थे। निम्न वर्ग में श्रमजीवी मजदूरों एवं गुलामो को रखा जाता था। उच्च वर्ग का जीवन सुखी एवं सम्पन्न था, परंतु गुलामो की अवस्था संतोषजनक नही रही होगी। आर्थिक विषमता के बावजूद वर्ग-संघर्ष के विषय मे जानकारी नही मिलती।
सामाजिक संगठन:-
सामाजिक संगठन के बारे में कुछ अनुमान लगाए गये हैं। संभवतः परिवार समाज की इकाई था। संयुक्त परिवार की व्यवस्था का प्रचलन था अथवा एकात्मक, इस विषय मे स्पष्ट जानकारी नही है, परन्तु बड़े आवासीय मकानों को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि बड़े परिवारों में अनेक व्यक्ति रहते होंगे। परिवार पितृसत्तात्मक थे या मातृसत्तात्मक, इस सम्बंध में भी निश्चित प्रमाण नही मिलते। चूंकि प्राक-आर्य संस्कृतियो में मातृसत्तात्मक तत्व प्रधान होते थे, अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि सिन्धु सभ्यता का परिवार भी मातृसत्तात्मक था। खुदाईयों से प्राप्त बड़ी संख्या में स्त्री मृण्मूर्तियों को देखकर यह संभावना और बढ़ जाती है। परिवारिक संस्कारो तथा विवाह इत्यादि की पद्वति के विषय में हमारी जानकारी नगण्य है।
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खान-पान एवं रहन-सहन:-
सैंधव निवासी खाने-पीने और वस्त्र-आभूषणों के शौकीन थे। वे शाकाहारी और मांसाहारी थे। गेंहू, जौं उनके मुख्य भोज्य पदार्थ थे। कुछ क्षेत्रों में चावल भी प्रचलित था। विभिन्न प्रकार के फल, सब्जियां दूध, मांस और मछलियाँ भी खाएं जाते थे। भोजन पकाने तथा खाने के लिए मिट्टी, पत्थर एवं धातुओ के बर्तनों का प्रयोग करते थे।
सैंधव वासी ऊनी एवं सूती दोनो प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे। स्त्री एवं पुरुष दोनों ही आभूषण पहनने के शौकीन थे। गरीब मिट्टी, घोंघे, हड्डी या कांसे के आभूषण पहनते थे जबकि धनी वर्ग के व्यक्ति सोने, चांदी, हाथी दांत एवं बहुमूल्य पत्थरो के आभूषण पहनते थे। प्रमुख आभूषणों में हार, कंगन, बाली पाजेब, अंगूठियाँ, नथुनी चूड़ियाँ आदि थे। ये लोग सजने- सवरने के भी शौकीन थे जिसके लिए कंघी, दर्पण, श्रृंगारदान, काजल, तेल आदि का प्रयोग करते थे।
आमोद-प्रमोद:-
सिन्धु सभ्यता के निवासी अपने जीवन मे आमोद-प्रमोद को समुचित महत्व देते थे। इनके मनोरंजन के अनेक साधन थे- जानवरो का शिकार, मछली पकड़ना, पक्षियों को पकड़ना, पशुओं को लड़ाना आदि। कुछ मुहरों पर वाद्य-यंत्रों के चित्र भी अंकित है, जिससे इनके संगीत में रुचि का प्रमाण मिलता है। नर्तक एवं नतर्की की मूर्तियाँ उनके नर्तक (नृत्य) के प्रति रुचि को स्पष्ट करती है। मनोरंजन के अन्य साधनों में पाँसे या चौपड़ का खेल बहुत ज्यादा प्रचलित था। शतरंजनुआ खेल भी खेला जाता था।
अंत्येष्टि क्रिया की प्रथा:-
सिन्धु सभ्यता के निवासियों की शव-विसर्जन प्रणाली पर भी उत्खनन से कुछ प्रकाश पड़ता है। प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि तीन प्रकार से मृतकों के संस्कार करते थे– पूर्ण समाधिकरण की प्रथा, आंशिक समाधिकरण की प्रथा और दाह-कर्म की प्रथा।
अन्ततः कहा जा सकता है कि सैंधव समाज मे वर्ग-विभाजन एवं आर्थिक असमानता होने के बावजूद भी यहां के लोगो का जीवन सुखी एवं सम्पन्न था।
आर्थिक जीवन:-
सिन्धु सभ्यता का अर्थिक जीवन, कृषि, पशुपालन, विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों तथा व्यापार-वाणिज्य पर आधारित था। इनके आर्थिक जीवन को हम निम्नलिखित संदर्भो के अन्तर्गत व्यक्त कर सकते है—-
कृषि:-
सिन्धु सभ्यता के निवासियों की आर्थिक व्यवस्था यद्यपि मूलतः उद्योग-धंधों एवं व्यापार प्रधान थी, फिर भी कृषि पर विशेष ध्यान दिया जाता था। सिन्धु घाटी की भूमि अत्यंत उपजाऊ थी क्योंकि सिन्धु और उसकी साहयक नदियां प्रतिवर्ष उर्वरा मिट्टी बहाकर लाती थी, जिससे पैदावार अच्छी होती थी। सिंचाई के लिए नहरों का प्रमाण नही मिलता लेकिन गड्ढो का प्रमाण मिलता है, जिसमे जल संचित करके इसका प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता था। जमीन को संभवतः फावड़ों एवं हलो की सहायता से जोता जाता था। कालीबंगा से खेतों को जोतने का प्रमाण मिलता है। फसलो को काटने के लिए पत्थरो एवं कांसे के हांसियो का प्रयोग संभवतः होता होगा। अनाज कूटने के लिए ओखली एवं मूशल का प्रयोग होता था यद्यपि लोथल से पत्थर की चक्कियां मिली है तथापि इसकी प्राचीनता संदिग्ध है।
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पशुपालन:-
कृषि के साथ-साथ पशुपालन का भी ध्यान दिया जाता था। मुहरों, मृतभाण्डों पर की गई चित्रकारियां, उत्खनन से प्राप्त जीवाश्मों के आधार पर उनके पालतू पशु-पक्षियों के विषय मे अनुमान लगाया जा सकता है। कूबड़वाले वृषभ का अंकन मुहरों पर अधिक देखने को मिलता है, अन्य पालतू पशुओं में बैल, भैंस, गाय, कुत्ता, सुअर, भेड़, बकरी, हिरण, खरगोश आदि थे। हाथी से उनका परिचय था। ऊंट एवं घोड़े का अंकन मुहरों पर नही था। लोथल, सुरकोटडा, कालीबंगा आदि स्थलों से घोड़े की मृण्मूर्तियाँ, हड्डियाँ और जबड़े आदि के अवशेष मिल जाने से अब यह निश्चित हो गया है कि इस पशु से सैंधव लोग परिचित थे।
शिल्प एवं उद्योग-धंधे:-
सिन्धु सभ्यता के निवासियों ने अपने जीवन को सुखी और सुविधा सम्पन्न बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों का विकास किया था, जो उनकी आर्थिक व्यवस्था का आधार था। उनके व्यवसायों में वस्त्र उद्योग, जिसमे वस्त्रों को बुनना, कढ़ाई करना, रंगाई करना, सूत कातना आदि शामिल थे। मोहनजोदाड़ो, कालीबंगा, लोथल, रंगपुर, आलमगीरपुर, आदि स्थानों से सूती वस्त्रों के प्रमाण मिलते है। इनके अतिरिक्त खिलौने बनाना, उन पर चित्रकारी करना, धातु का काम, ईंट बनाना, मूर्तियाँ, मुहरे और मनके बनाना आदि प्रमुख उद्योग थे। चन्हूदाड़ो से मनके बनाने के कारखाने मिले है।
उपर्युक्त व्यवसायों के अतिरिक्त जौहरी, नाविक, मकान बनाने वाले, मछुआरों का व्यवसाय, हाथी दांत से प्रसाधन की सामग्री तैयार की जाती थी। इस प्रकार व्यवसाय एवं उद्योग धंधों का सिन्धु सभ्यता में समुचित विकास हुआ।
व्यापार-वाणिज्य:-
सिन्धु वासी अपने द्वारा निर्मित वस्तुओ के लिए बाजार की तलाश और कच्चे माल की प्राप्ति की लालशा एवं अतिरिक्त उत्पादन से जन्मे सम्पतशाली वर्ग के विलाश की वस्तुओ के लिए भारत के विभिन्न भागों तथा विदेशो से भी व्यापार करते थे। पुरातत्विक अन्वेषणों से सिन्धु सभ्यता के व्यापार का प्रमाण मिलता है– चाँदी (अफगानिस्तान), सोना (दक्षिण भारत, मैसूर), ताँबा (राजस्थान,बलूचिस्तान), टीन (अफगानिस्तान, ईरान), तथा लाजवर्द, गोमेद, पन्ना, मूंगा आदि राजस्थान, अफगानिस्तान, ईरान आदि स्थानों से मंगाये जाते थे।
मेसोपोटामिया, मिस्र, मध्य एशिया के साथ भी सिन्धुवासियों का व्यापारिक सम्बन्ध था। इसका प्रमाण सिन्धु सभ्यता की मुहरों का मेसोपोटामिया में मिलना और मेसोपोटामिया की मुहरों का सिन्धु सभ्यता में पाया जाना। मेसोपोटामिया के अभिलेख में भी इस बात की चर्चा की गई है कि उर नगर के व्यापारी ‘मेलुहा’ से व्यापार करते थे।
फारस के फैलका और बहरीन से हड़प्पा लिपियों का पाया जाना, मिस्र से हड़प्पा प्रकार के मनकों का पाया जाना, लोथल से गोरिल्ला और ममी की मूर्तियों का पाया जाना, क्रीट के मिश्रित पशुओं और मोहनजोदाड़ो के मिश्रित पशुओं में समानता यह प्रमाणित करती है कि सैंधववासियो का इन देशों के साथ व्यापारिक संबंध था।
सैंधव सभ्यता का व्यापार विनिमय पर आधारित था क्योंकि उत्खननों से मुद्रा के प्रचलन का प्रमाण नही मिलता है। व्यापार की सुविधा के लिए माप-तौल की प्रणाली प्रचलित थी। तौलने की इकाई के रूप में 16 या उसके गुणक अंको का प्रयोग किया जाता था। मोहनजोजड़ो से सीप का बना हुआ एक मापदण्ड तथा लोथल से हाथी दांत का बना हुआ एक पैमाना मिला है। इससे स्पष्ट होता है कि व्यापार की प्रगति के लिये माप-तौल की एक निश्चित प्रणाली अपनाई गई थी
इस प्रकार कहा जा सकता है कि सिन्धुवासियों का बाह्य व्यापार आन्तरिक व्यापार से अधिक विकसित रहा होगा, जिसकी पुष्टि के लिए अनेक प्रमाण उपलब्ध है। निश्चित रूप से इसके लिये व्यापारियों का एक सुदृढ़ संगठन भी सिन्धु सभ्यता में कार्यरत रहा होगा। वास्तव में यदि देखा जाय तो सैंधव सभ्यता की समृद्धि का मुख्य कारण उसका विदेशी व्यापार ही रहा होगा।
Must Read It: सिन्धु घाटी सभ्यता के स्वरूप पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
P A Q Section
प्रश्न 1: सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों का सामाजिक जीवन कैसा था?
उत्तर: सिंधु घाटी का समाज मातृप्रधान था और विभिन्न व्यवसायों के आधार पर विद्वान, योद्धा, व्यवसायी, और मजदूर वर्ग में विभाजित था। यहाँ के लोग शाकाहारी और माँसाहारी दोनों थे। वे मनोरंजन में नृत्य, संगीत, जुए और खेल-कूद का आनंद लेते थे।
प्रश्न 2: इस सभ्यता की आर्थिक मुख्य गतिविधियाँ क्या थीं?
उत्तर: सिंधु घाटी की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि, पशुपालन, शिल्प, और व्यापार पर आधारित थी। गेहूँ, जौ, कपास आदि की खेती होती थी। पशुपालन में गाय, भैंस, भेड़ प्रमुख थे और व्यापार समुद्री और स्थल दोनों मार्गों से होता था।
प्रश्न 3: हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने किस प्रकार के पदार्थों और वस्तुओं का निर्माण किया?
उत्तर: उन्होंने धातुओं के आभूषण, सीप, शंख, हाथीदांत से बने गहने बनाए। कपड़ा उद्योग भी विकसित था और वे सूत कातने तथा वस्त्र उत्पादन के अग्रणी थे। उनके हस्तकला और मृद्भांडों की गुणवत्ता उच्च स्तर की थी।
प्रश्न 4: मोहनजो-दड़ो और हड़प्पा जैसे शहरों की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं?
उत्तर: इन शहरों में उन्नत नगर नियोजन, ग्रिड पैटर्न वाली सड़कें, मानकीकृत वजन और माप प्रणाली, और परिष्कृत जल निकासी व्यवस्था थी। इसका उद्देश्य स्वच्छता, सुरक्षा और सुविधाजनक जीवन सुनिश्चित करना था।
प्रश्न 5: सिंधु घाटी सभ्यता का धार्मिक जीवन कैसा था?
उत्तर: वे मातृदेवी की पूजा करते थे। प्रकृति पूजा और पशु पूजा प्रचलित थी। पशुपति महादेव के प्रतीक भी मिले हैं। हवन कुंड और पिपल वृक्ष की पूजा से धार्मिक आस्था व्यक्त होती है।


