सिन्धु घाटी सभ्यता की परवर्ती सभ्यता के योगदान का वर्णन कीजिए?

 सिन्धु घाटी सभ्यता, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व में अपने चरम पर थी, के पतन के बाद भारतीय उपमहाद्वीप पर कई नई सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत धाराओं ने अपना प्रभाव डाला। इन परवर्ती सभ्यताओं:- विशेषकर वैदिक सभ्यता:- ने न केवल प्राचीन भारत की नींव रखी, बल्कि धर्म, समाज, अर्थव्यवस्था और शहरी जीवन के क्षेत्र में ऐसे योगदान दिए, जो आज भी हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। आइए, इस पोस्ट में हम उन योगदानों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं।

उत्तर– विश्व की प्राचीनतम नदी घाटी सभ्यताओ में सिन्धु सभ्यता का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह सभ्यता एक उन्नत, नगरीय तथा विकसित आर्थिक जगत की सभ्यता थी, यहाँ के नगर नियोजन, जल आपूर्ति, जल निकास आदि तमाम नगरीय तत्व कही न कही सुमेर की सभ्यता, मिस्र तथा मध्य-पश्चिम एशिया की समकालीन सभ्यताओ से आगे थी। यह सभ्यता अपने विकसित स्वरूप में करीब 600 वर्षो (2300–1750 ई0 पू0) तक चलती रही। 1700 ई0 पू0 के आस-पास इस सभ्यता के पतन के लक्षण स्पष्ट तौर पर दिखाई देने लगते हैं। यधपि सिन्धु सभ्यता के नगरीकरण के पतन पश्चात उसके तत्वों की निरंतरता परवर्ती सभ्यताओ में देखी गई। सिन्धु सभ्यता ने भारतीय धर्म, कला-कौशल, लिपि, आदि अनेक क्षेत्रो पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।

सिन्धु सभ्यता के अनेक लक्षण है, जिन्होंने भारतीय सभ्यता को प्रभावित किया है। जिनका वर्णन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते है—-

(A) भौतिक क्षेत्र:-

भौतिक क्षेत्र के प्रमुख तत्व, जिन्हें हड़प्पा संस्कृति ने प्रभावित किया, उनका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है—

(i) चतुर्वर्ण व्यवस्था एवं रहन-सहन: –

सामाजिक जीवन के क्षेत्र में हम चतुर्वर्ण व्यवस्था के बीज सैंधव व्यवस्था में पाते है। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त अवशेषों के आधार पर विद्वानों ने सैंधव समाज को चार वर्गो में बांटा है– विद्वान योद्धा, व्यापारी तथा शिल्पकार और श्रमिक। इन्हें हम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का पूर्वज कह सकते है। इसके साथ ही साथ सूती एवं ऊनी वस्त्र, आभूषण, लेप, काजल, चूड़ियां, लिपिस्टिक आदि सौंदर्य प्रसाधन की वस्तुएं हड़प्पा से आज तक प्रकालन में है।

(ii) नगरीय जीवन एवं प्रशासन:-

सैंधव सभ्यता की एक प्रमुख देंन नगरीय जीवन एवं प्रशासन के क्षेत्र में है। पूर्ण विकसित नगरीय जीवन का सूत्रपात्र इसी सभ्यता में हुआ। सुरक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, प्रशासन में एकरूपता इत्यादि के क्षेत्र में सैंधव लोगो ने बाद कि पीढ़ियों का दिशा-निर्देशन किया है। नगर शासन के क्षेत्र में भी उनका योगदान  है। क्योंकि उनके नगरो में स्वास्थ्य एवं सफाई आदि के लिए नगरपालिकाओं का अस्तित्व आवश्य ही रहा होगा। सैंधव निवासियों का शासन अत्यंत सुदृढ़ एवं एकात्मक था। कहा जा सकता है कि एकीकृत केन्द्रीय शासन की प्रेरणा भारतीयों को उन्ही से मिली।

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(iii) आवास निर्माण:-

हड़प्पा सभ्यता से लेकर वर्तमान तक घरों का ढांचा एक सा रहा, स्नानगृह, आंगन, शौचालय आदि प्रथा अब तक चली आ रही है।

(iv) कृषि एवं पशुपालन:-

कृषि एवं पशुपालन का संगठित रूप से प्रारम्भ सैंधववासियो ने ही किया, जिनका विकास बाद की सभ्यताओ में हुआ। अगर देखा जाय तो कृषि एक प्रमुख व्यवसाय वर्तमान में भी है। सैंधव सभ्यता से गेंहू, जौ, तिल, कपास, चावल, बाजार, भेड़, बकरी, गाय आदि अनेक फसलों एवं दुधारू पशुओं के प्रमाण मिले है, जो आज भी जारी है।

(v) व्यापार-वाणिज्य:-

व्यापार-वाणिज्य एवं उद्योग-धन्धो का संगठित रूप से प्रारम्भ सैंधववासियो ने ही किया, जिनका विकास बाद की सभ्यताओ में हुआ। जो वर्तमान में भी आर्थिक स्थिति का आधार स्तम्भ है। यही के निवासियों ने बाह्य जगत से सम्पर्क स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया, जो बाद की सदियो तक विकसित होता रहा। अगर सैंधव सभ्यता के बाह्य व्यापार को देखे तो ये लोग मिस्र, बहरीन, मेसोपोटामिया, मध्य एशिया आदि के साथ व्यापार करते थे। जो वर्तमान में भी प्रचलित है।

(vi) कला:-

भारतीय कला के विभिन्न तत्वों का मूल रूप भी हमे सैंधव काल में दिखाई देता है। भारतीयों को दुर्ग निर्माण तथा प्राचीर के निर्माण की प्रेरणा यहीं के कलाकारों ने दी थी। सुनियोजित ढंग से नगर बसाने का ज्ञान भी हमे हड़प्पा संस्कृति से ही प्राप्त होता है। मौर्य कलाकारों ने स्तम्भयुक्त भवन बनाने की प्रेरणा सैंधव सभ्यता से ही ग्रहण किया था। लगता है इन्ही के अनुकरण पर मौर्य कलाकारों ने चन्द्रगुप्त मौर्य के खंभों वाले राजप्रासाद का निर्माण किया था।

मूर्ति कला का प्रारम्भ सर्वप्रथम सिन्धु घाटी सभ्यता में ही किया गया। वहाँ के कालाकारों ने पाषाण, ताम्र, कांसा आदि की जिन कलात्मक मूर्तियों का सृजन किया उनका व्यापक प्रभाव बाद की हिन्दू कला पर पड़ा। इस प्रकार ऐतिहासिक काल की प्रारम्भिक मूर्तिकला सैंधव मूर्तिकला से प्रभावित है।

निष्कर्षतः-

बहुजातीय, बहुवर्गीय, बहुनस्लीय समाज सैंधव काल से लेकर आधुनिक काल तक विद्यमान है– रहन-सहन, खान-पान में  भी सैंधव काल की रूचियां वर्तमान में भी है।

(B)  आध्यात्मिक क्षेत्र:-

सैंधव सभ्यता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव आध्यात्मिक क्षेत्र पर दिखाई देता है। मार्शल महोदय ने कहा है कि हिन्दू धर्म के प्रमुख तत्वों का आदि रूप हमे सैंधव धर्म मे प्राप्त हो जाता है। इन्हें हम निम्नलिखित प्रकार से उल्लेखित कर सकते है–

(i) माता देवी (Mother Goddess)

सैंधव धर्म मे मातृदेवी का प्रमुख स्थान था। इसी का विकसित रूप बाद में शाक्त धर्म के रूप में दिखाई देता है। सिन्धु घाटी के लोगो ने अपने पीछे मातृपूजन की जो परम्परा छोड़ी उसे भारतीय लोगो ने शक्ति देवी के रूप में स्वीकार किया तथा वह आज तक सर्वोपरि देवी के रूप में विद्यमान है।

(ii) शिव पूजा:-

सैंधव धर्म मे जिस पुरुष देवता के अस्तित्व मिलते है उसे ऐतिहासिक काल के शिव का आदि रूप स्वीकार किया गया है। यहां से लिंग पूजा, योनि पूजा के प्रमाण मिलते है। कालान्तर में हिन्दू धर्म मे इसे ही शिव का प्रतीक मान लिया गया। हड़प्पा से प्राप्त योगी की मूर्ति पतंजलि के योगशास्त्र तथा वर्तमान भारत के योग को आधारभूत बनाती है।

(iii) वृक्ष पूजा:-

सैंधव सभ्यता में वृक्ष पूजा के प्रमाण मिलते है। विभिन्न मुद्राओं पर अंकित पीपल के वृक्ष, टहनी,पत्तियों आदि से स्पष्ट है कि पीपल को पवित्र मानकर उसकी पूजा की जाती थी। आज भी हिंदू धर्म मे पीपल में देववास माना जाता है तथा उसे काटना या जलाना महापाप कहा जाता है। यह विचार हिन्दू धर्म मे सैंधव सभ्यता से ही ग्रहण किया गया है।

(iv)  पशु पूजा:-

सैंधव सभ्यता में विभिन्न पशुओं की धार्मिक महत्ता थी। कालांतर के हिन्दू धर्म मे भी हमे पशु पूजा के प्रमाण मिलते हैं। विभिन्न मुद्राओं से ज्ञात होता है कि सिन्धुवासी वृषभ तथा भैसे को पवित्र मानकर उनकी पूजा करते थे। कालांतर में हिन्दू धर्म मे वृषभ का संबंध शिव से जोड़कर उसे पूज्य माना गया है। सैंधव शिव के साथ सिंह का भी अंकन हुआ। जिसे हिन्दू धर्म मे दुर्गा का वाहन माना गया है। सैंधव मुद्राओ से पता चलता है कि नाग पूजा भी होती थी। हिन्दू धर्म मे आज भी नाग पूजा प्रचलित है।

(v) जल पूजा:-

सैंधव सभ्यता के लोग जल को पवित्र मानते थे तथा धार्मिक समारोह के अवसर पर सामूहिक स्नान आदि का महत्व था, जैसा कि बृहतस्नानागार से पता लगता है। यह भावना भी हमे बाद के हिन्दू धर्म मे देखने को मिलती है। पूजा में धूप, घी का प्रयोग होता था।  कुछ मुद्राओ पर अग्नि जलती हुई चित्रित है। ये सभी विधियां वर्तमान में हिन्दू घर्म की उपासना में भी मिलती हैं।

(vi) स्वास्तिक चिन्ह:-

सैंधव निवासी स्वास्तिक चिन्ह, स्तम्भ आदि प्रतीकों को भी पवित्र मानकर उनकी पूजा करते थे। मुद्राओ पर इनके चित्र मिलते हैं। हिन्दू धर्म मे आज भी स्वास्तिक को पवित्र मांगलिक चिन्ह माना जाता है।    

 (vii)  मूर्ति पूजा:-

सैंधव सभ्यता में प्राप्त विभिन्न देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों आदि की मूर्तियों से स्पष्ट है कि वहाँ के लोग मूर्ति पूजा में विश्वास करते थे तथा अपने देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते थे। मार्शल का विचार है कि वे लकड़ी के मंदिर बनाते थे। कालांतर में पौराणिक हिन्दू धर्म मे मूर्ति तथा मंदिर उपासना के सर्वमान्य अधिष्ठान बन गये। अतः इस निष्कर्ष से बचना कठिन है कि कालांतर का हिन्दू धर्म सैंधव धर्म का ही विकसित रूप है।

(viii) अंधविश्वास:-

सैंधव निवासी ताबीज धारण करते थे। इनके द्वारा वे भौतिक व्याधियां अथवा प्रेतात्माओं से छुटकारा पाने का प्रायस करते थे। इस प्रकार का अंधविश्वास आज भी हमे हिन्दू धर्म मे देखने को मिलता है।

निष्कर्ष:-

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सैंधव सभ्यता में केवल नगरो का ही अंत हुआ, सम्पूर्ण सभ्यता का नही। इसके सामाजिक, अर्थिक, धार्मिक तथा ग्रामीण जीवन से संबंधित सभी तथ्य अवशिष्ट रहे अपितु उन्हें आज भी भारतीय जन जीवन मे न्यूनाधिक परिवर्तनों के साथ देखा जा सकता है। इस प्रकार हम देखते है कि परवर्ती हिन्दू संस्कृति का शायद ही कोई आयाम है, जिसे हड़प्पा संस्कृति ने प्रभावित न किया हो।   

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