अशोक का प्रशासन: अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों से प्राप्त प्रमाण/Administration of Ashoka through Inscriptions and Literary Sources

प्रश्न– अशोक के प्रशासन का साहित्य एवं अभिलेखों के आधार पर वर्णन कीजिए।

अशोक का प्रशासन मौर्य शासन की दक्षता और लोकहित की नीति का उत्कृष्ट उदाहरण था। उपलब्ध अभिलेखों और साहित्यिक विवरणों से उसके शासन, नीतियों और धार्मिक दृष्टिकोण की स्पष्ट झलक प्राप्त होती है।

परिचय

एक महान विजेता एवं सफल धर्म प्रचारक होने के साथ ही साथ अशोक एक कुशल प्रशासक भी था। उसने किसी नई शासन व्यवस्था की नींव नही डाली, अपितु अपने पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था में ही आवश्यकतानुसार परिवर्तन एवं सुधार कर उसे अपनी नीतियों के अनुकूल बना दिया। सिद्धान्ततः निरंकुश एवं सर्वशक्तिमान होते हुए भी अशोक एक प्रजावात्सल्य सम्राट था। वह अपनी प्रजा को पुत्रवत मानता था और इस प्रकार राजत्व के सम्बंध में उसकी धारणा पितृपरक थी। वह प्रजाहित को सर्वाधिक महत्व देता था। उसने देवनामप्रिय की उपाधि धारण किया। शास्त्री के अनुसार उसका उद्देश्य पुरोहितों का समर्थन प्राप्त करना था। इसके विपरीत रोमिलाथापर का विचार है कि इस उपाधि का लक्ष्य दैवीय शक्ति को अभिव्यक्त करना तथा अपने को पुरोहितों की मध्यस्थता से दूर करना था।

मंत्रिपरिषद

चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन मंत्रिपरिषद अशोक के काल मे ‘परिषा’ में बदल गई। बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि अशोक का प्रधानमंत्री राधागुप्त था। उच्च कर्मचारियों के कार्यो का निरोक्षण करने तथा उन्हें निर्देश देने का अधिकार भी परिषद को था। तीसरे तथा छठे शिलालेख से मंत्रिपरिषद के कार्यो पर प्रकाश पड़ता है। तीसरे शिलालेख से पता चलता है कि मंत्रिपरिषद के आदेश विधिवत लिखे जाते थे, जिन्हें स्थानीय अधिकारी जनता तक पहुंचते थे। छठे शिलालेख से पता चलता है कि सम्राट के मौलिक आदेशो तथा विभागीय अध्यक्षो  द्वारा आवश्यक विषयो पर लिये गये निर्णयों के ऊपर मंत्रिपरिषद विचार करती थी। उसे इनमे संशोधन करने अथवा बदल देने तक के लिए सम्राट से सिफारिश करने का अधिकार था। अशोक कहता है कि इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो अथवा किसी विषय पर मंत्रिपरिषद में मतभेद हो तो इसकी सूचना उसे तुरन्त भेजी जाय। राजकीय आदेशो को पुनर्विचार अथवा परिवर्तन के लिए सम्राट के पास भेजना यह सिद्ध करता है कि मंत्रिपरिषद मात्र सलाहकारी संस्था ही नही थी अपितु उसे वास्तविक एवं विस्तृत अधिकार प्राप्त थे। दिव्यावदान से भी पता चलता है कि मंत्रिपरिषद के विरोध के कारण अशोक को बौद्ध संघ के प्रति किया जाने वाला अपव्यय रोकना पड़ता था। इस प्रकार ‘परिषा’ की स्थिति आधुनिक सचिवालय जैसी थी जो सम्राट तथा महामात्रो के बीच प्रशासनिक निकाय का कार्य करती थी।

प्रान्तीय प्रशासन

प्रशासन की सुविधा के लिए अशोक ने अपने विशाल साम्राज्य को अनेक प्रान्तों में विभाजित किया था। उसके अभिलेखों में पाँच प्रान्तों  के नाम मिलते हैं– उत्तरापथ (राजधानी-तक्षशिला), दक्षिणापथ (सुवर्णगिरि), अवन्ति (उज्जयिनी), कलिंग (तोसली), प्राच्य अथवा पूर्वी प्रदेश (पाटलिपुत्र)। इनके अतिरिक्त और भी प्रान्त रहे होंगे। राजनीतिक महत्व के प्रान्तो में राजकुल से संबंधित व्यक्तियों को ही ‘राज्यपाल’ नियुक्त किया जाता था। उन्हें ‘कुमार’ तथा ‘आर्यपुत्र’ कहा जाता था। प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से प्रान्तो को ‘जिलो’ या ‘विषयो’ में विभाजित किया गया था इसके प्रमुख को ‘विषयपति’ कहा जाता था, जिसकी नियुक्ति प्रान्तपति करता था। इसिलिये ये सम्राट के प्रति उत्तरदायी न होकर राज्यपाल के प्रति उत्तरदायी होते थे। यह बात सिद्धपुर लघुशिलालेख से सिद्ध होती है। इसमें अशोक ‘इसला’ के महामात्रो को सीधे आदेश न देककर दक्षिणी प्रान्त के ‘कुमार’ के माध्यम से ही आदेश प्रेषित करता है ।

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प्रशासनिक पदाधिकारी

 अशोक के लेखों में उसके प्रशासन के कुछ महत्वपूर्ण पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं। अशोक के तृतीय शिलालेख में तीन पदाधिकारियों के नाम मिलते है– युक्त, राजुक तथा प्रादेशिक। युक्त जिलो के अधिकारी होते थे, जो राजस्व का लेखा-जोखा रखते थे और सम्राट की संपत्ति का प्रबंध करते थे। अर्थशास्त्र में युक्त का वर्णन लेखाकार के रूप में मिलता है। राजुक कि स्थिति आधुनिक शासन में जिलाधिकारी जैसी थी, जिसे राजस्व तथा न्याय दोनो का कार्य देखना पड़ता था। रोमिलथापर के अनुसार राजुक ग्रामीण प्रशासन की रीढ़ थे। भूमि तथा कृषि सम्बंधित समस्त विवादों का निर्णय उन्हें ही करना होता था। प्रादेशिक मंडल का प्रधान अधिकारी होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रादेशिक ही अर्थशास्त्र में उल्लेखित ‘प्रदेष्टा’ नामक पदाधिकारी था, जिसे विभिन्न विभागो के अध्यक्षो के कार्यो को देखना पड़ता था। 12 वे शिलालेख के अनुसार अशोक ने तीन और अधिकारियों को नियुक्त किया– धम्ममहामात्र (धर्म से संबंधित अधिकारी), स्त्राध्यक्ष महामात्र (महिलाओं के नैतिक आचरणों की देखभाल करना, ब्रजभूमिक (चारागाह का अध्यक्ष)। लेकिन अशोक के अभिलेखों में पुरोहित का पद महत्वहीन हो चुका था और दिव्यावदान के अनुसार ‘परिषा’ अधिक ताकतवर थी। अशोक के अभिलेखों में ‘नगर-व्यवहारिक’ तथा अन्तमहामात्र नामक पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है। नगर-व्यवहारिक न्याय का न्यायधीश होता था भंडारकर का विचार है कि अर्थशास्त्र में इसी अधिकारी का उल्लेख  ‘पौरव्यवहारिक’ नाम से किया गया है। अशोक के अभिलेखों में उसे ‘महामात्र’ कहा गया है।

न्याय प्रशासन

 न्याय के क्षेत्र में अशोक ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुधार किए। धौली और जौगढ़ के प्रथम प्रथक शिलालेखों में वह नगर व्यवहारिको को आदेश देता है कि वे बिना उचित कारण के किसी को कैद अथवा शारीरिक यातनाएँ न दे। वह उन्हें ईर्ष्या, क्रोध, निष्ठुरता, अविवेक, आलस्य आदि दुर्गुणों से मुक्त रहते हुए निष्पक्ष मार्ग का अनुकरण करने का आदेश देता है। वह उन्हें याद दिलाता है कि अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करने से वे स्वर्ग प्राप्त करेंगे तथा राजा के ऋण से भी मुक्त हो जावेंगे। पांचवे शिलालेख से पता चलता है कि ‘धम्ममहामात्र’ कैद की सजा पाए हुए कैदियों के निरीक्षण करते थे। यदि उन्हें अकारण दण्ड मिला होता था, तो वे उन्हें मुक्त कर सकते थे। अपराधी का परिवार यदि बड़ा होता था तो उसे धन देते थे अथवा यदि अपराधी अधिक वृद्ध होता था तो उसे स्वतंत्र करा देते थे। अशोक प्रति पांचवे वर्ष न्यायधीशों के कार्यो की जांच के लिए महामात्रो को दौरों पर भेजा करता था। न्याय-प्रशासन में एकरूपता लाने के लिए अशोक ने अपने अभिषेक के 26 वें वर्ष राजुको को न्याय संबंधी मामलों में स्वतंत्र अधिकार प्रदान कर दिए थे। अशोक के किसी भी अभिलेख में यह जानकारी नही मिलती है कि अशोक ने मृत्यु दण्ड को समाप्त कर दिया था लेकिन उसके स्वरूप में आवश्य ही परिवर्तन किया गया था।

लोक कल्याणकारी राज्य

 गिरनार लेख से पता चलता है कि अशोक ने अपने साम्राज्य के प्रत्येक भाग में मनुष्यों तथा पशुओं के लिए अलग-अलग चिकित्सालयों की स्थापना करवायी थी। जो औषधियां देश मे प्राप्त नही होती थी,उन्हें बाहर से मँगवाकर आरोपित करवाया गया था। इस प्रकार अशोक सच्चे अर्थों में जनहितैसी सम्राट था। उसने अपने साम्राज्य में प्रतिवेदक (सूचना देने वाले) नियुक्त किये थे तथा उन्हें स्पष्ट आदेश देता था कि प्रत्येक समय तथा प्रत्येक स्थान में चाहे मैं भोजन करता रहूं, अन्तपुर, शयनकक्ष, ब्रज (पशुशाला) में रहूं, पालकी पर रहूं, उद्यान में रहूं, सर्वत्र जनता के कार्यो की सूचना दे, मैं सर्वत्र जनता का कार्य करता हूँ; इसी प्रकार प्रथम पृथक शिलालेख में वह प्रजा के प्रति अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए कहता है “सभी मनुष्य मेरी सन्तान है। जिस प्रकार मैं अपनी संतान के लिए इच्छा करता हूँ कि वे सभी इहलौकिक तथा पारलौकिक हित और सुख से संयुक्त हो, उसी प्रकार सभी मनुष्यों के लिए मेरी इच्छा है।”

सैन्य तथा राजस्व व्यवस्था

अशोक के अभिलेखों से सैन्य-व्यवस्था या राजस्व-व्यवस्था पर प्रकाश नही पड़ता। अधिकांश इतिहासकार यह मानते हैं कि कलिंग युद्ध के पश्चात अशोक सेना और युद्ध से विमुख हो गया तथा उसने धर्म विजय की नीति अपनाई, जिसमे सेना की आवश्यता नहीं होती थी। इसके बावजूद अशोक अपने अभिलेखों में कही भी यह नही कहता है कि उसने सेना को भंग कर दिया दूसरी तरफ आटविको को जिन शब्दो में कड़ी चुनौती दी जाती है, वह सैनिक शक्ति से सम्पन्न कोई शासक ही दे सकता था। अतः अशोक ने सेना भंग नही की बल्कि उसे पूर्ववत बने रहने दिया। सैन्य-व्यवस्था में कोई परिवर्तन नही किया गया। इस प्रकार राजस्व-व्यवस्था भी संभवतः पहले की ही तरह चलती रही।

निष्कर्ष

 उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि सम्राट अशोक केवल साम्राज्य की विशालता के लिए विख्यात नही है, बल्कि उनके श्रेष्ठ प्रशासन, जनता के नैतिक उत्थान तथा कल्याणकारी कार्यो के लिए इन्हें महान कहा जाता है। विश्व मे विशालता की दृष्टि से अनेक साम्राज्य तथा अनेक शासन प्राप्त हो सकते है। किन्तु विस्तृत साम्राज्य का सर्वश्रेष्ठ प्रशासक होने के साथ-साथ सर्वश्रेष्ठ मानव होना कठिन ही नही बल्कि असम्भव है। श्रेठ सम्राट, कुशल प्रशासक, सफल सेनापति, महान कूटनीतिज्ञ तथा आदर्श मानव इत्यादि गुणों का एक साथ एक व्यक्ति में निहित होना और कुछ नही प्रकृति का आश्चर्य ही है।

PAQ (People Also Ask)

प्रश्न 1: अशोक के प्रशासन के बारे में हमें प्रमुख जानकारी किन स्रोतों से प्राप्त होती है?

उत्तर: अशोक के प्रशासन की जानकारी मुख्यतः उसके शिलालेखों, स्तंभलेखों और बौद्ध साहित्य से मिलती है। अशोक के 33 अभिलेख उसके शासन की नीति, धार्मिक सहिष्णुता और प्रजापालन के सिद्धांतों को स्पष्ट करते हैं। विशेषतः गिरनार, धौली, शाहबाजगढ़ी और कंधार के अभिलेख उसके व्यापक प्रशासनिक दृष्टिकोण का प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त दिव्यावदान और महावंश जैसे ग्रंथों में भी अशोक के शासन की विस्तृत झलक मिलती है।

प्रश्न 2: अशोक के प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं?

उत्तर: अशोक का प्रशासन अत्यंत संगठित, केंद्रीकृत और कल्याणकारी था। सम्राट सर्वोच्च शासक था, जिसके अधीन प्रांतों का संचालन कुमारों (राजकुमारों) और महामात्रों द्वारा किया जाता था। प्रशासन में धर्म का समावेश करते हुए अशोक ने धर्म महामात्र की नियुक्ति की, जो प्रजा के नैतिक कल्याण और धर्म प्रचार के लिए उत्तरदायी थे।

प्रश्न 3: अशोक के अभिलेखों से प्रांतीय शासन व्यवस्था के क्या प्रमाण मिलते हैं?

उत्तर: अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अशोक ने अपने साम्राज्य को अनेक प्रांतों में बाँटा था, जैसे—उज्जैन, तक्षशिला, कौशल और कलिंग। प्रत्येक प्रांत में एक कुमार या आर्यपुत्र गवर्नर के रूप में नियुक्त था। उसके अधीन महामात्र, राजुक और युक्त जैसे अधिकारी कार्य करते थे, जिससे प्रशासनिक नियंत्रण सुदृढ़ बना रहा।

प्रश्न 4: धर्म महामात्रों की भूमिका अशोक के शासन में क्या थी?

उत्तर: अशोक द्वारा नियुक्त धर्म महामात्र प्रशासनिक और नैतिक दोनों भूमिकाएँ निभाते थे। वे जनता के बीच धर्म, सहिष्णुता, अहिंसा और सत्य जैसे मूल्यों का प्रचार करते थे। साथ ही वे समाज में धार्मिक मतभेदों को समाप्त करने, प्रजा के कल्याण और सम्राट की नीतियों के पालन की देखरेख भी करते थे।

प्रश्न 5: साहित्यिक स्रोतों से अशोक की प्रशासनिक नीति के कौन से पहलू उजागर होते हैं?

उत्तर: दिव्यावदान, महावंश और अशोकावदान जैसे बौद्ध ग्रंथों में अशोक को दयालु, न्यायप्रिय और प्रजावत्सल शासक बताया गया है। इन ग्रंथों में उनके धर्मराज्य की अवधारणा का उल्लेख है, जिसमें प्रशासन केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी भी था। ये स्रोत अभिलेखों में वर्णित नीति के समानांतर हैं, जिससे प्रशासनिक व्यवस्था की प्रामाणिकता सिद्ध होती है।

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