Balban’s Theory of Kingship: Principles and Governance Explained

जानिए बलबन का राजत्व सिद्धांत और कैसे उसने दिल्ली सल्तनत में शाही प्रतिष्ठा और प्रशासन को मजबूत किया।

परिचय: बलबन और उसका राजत्व सिद्धांत

वास्तविक अर्थो में दिल्ली के सुल्तानों की गिरती हुईं प्रतिष्ठा एवं प्रशासन में स्थायित्व लाने का श्रेय बलबन को जाता है। जिसने सुल्तान की गिरती हुई प्रतिष्ठा को गौरवपूर्ण बनाया। जिसके लिए उसने अपने कुछ सिद्दांत बनाये, यही सिद्दांत उसका राजत्व सिद्दांत कहलाया। बलबन का राजत्व सिद्दांत सल्तनत कालीन इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है।  दरअसल इल्तुतमिश के अयोग्य उत्तराधिकारियों के पश्चात, बलबन जब दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर आरूढ़ हुआ तो साम्राज्य की स्थिति अत्यंत दयनीय थी । इसीलिए इस स्थिति पर नियंत्रण एवं कुशल प्रशासन हेतु बलबन ने राजत्व के सिद्धांतों को अपनाया था।
   

बलबन के राजत्व सिद्धांत का स्वरूप

1. दैवीय सिद्धांत का अनुयायी

बलबन दिल्ली का प्रथम सुल्तान था,जिसने राजत्व सिद्धांतो की स्थापना की। उसके राजत्व सिद्धांत का स्वरूप फारस के राजत्व से प्रेरित था। इसका अनुकरण करते हुऐ, उसने राजत्व की प्रतिष्ठा को उच्च सम्मान दिलाने का प्रयत्न किया। राजा को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि “नियावते खुदाईमाना गया। बलबन के अनुसार मान-मर्यादा की दृष्टि से वह केवल मुहम्मद साहब के बाद है। उसमें ईश्वर का प्रतिबिम्ब है, और उसका हृदय दैवीय प्रेरणा व क्रांति का भण्डार है। उसने इस बात पर बल दिया कि राजा को शक्ति ईश्वर से प्राप्त होती है, इसिलिए उसके कार्यो की सार्वजनिक जाँच नही हो सकती है। वह निरंकुशता को राजत्व का शारीरिक रूप बताता था।

2. दिखावटी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा

दिखावटी मान-मर्यादा एवं प्रतिष्ठा को बलबन ने राजत्व के लिए अनिवार्य बना दिया था। अपने पूरे शासनकाल में उसने साधारण व्यक्तियों से कोई सम्पर्क नही रखा। उसने राजा के पद को दैवी संस्था का रूप दिया,जिसका जनसाधारण के साथ कोई निकट सम्पर्क नही होना चाहिए। उसका विचार था कि अगर राजत्व को जनता के निकट लाया जय तो उसका अन्त हो जायेगा। परिणाम यह होगा कि साधारण लोग भी राजपद की लालसा करने लगेंगे, इसिलिए प्रजा से दूरी आवश्यक है।

3. वंशावली पर महत्व

 वंशावली पर अधिक बल देते हुए उसने स्वयं को फिरदौस के शाहनामा में वर्णित अफराशियाब के वंशज से संबंधित घोषित किया। बलबन ने लगभग 30 अधिकारियों को इसिलिए पदच्युत कर दिया क्योंकि वे उच्च वंश के नही थे। उसने कहा था कि “जब मैं किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी क्रोध से उत्तेजित हो जाती है।”  बलबन ने अपने राजत्व को प्रभवशाली बनाये रखने के लिए फारस के रहन-सहन की परंपरा को अपनाया। अपने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक जीवन में उसने फारस के रीति-रिवाजों का अनुकरण किया। उसने अपने दरवार का स्वरुप भी ईरानी परंपरा के आधार पर निर्मित किया। बलबन स्वयं सम्पूर्ण राजसी वैभव के साथ ही दरवार में उपस्थित होता था। उसने भयंकर दिखने वाले अंगरक्षको को नियुक्त कर रखा था।

4. कठोर नियंत्रण

बलबन ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भगीरथ प्रयत्न किये और उसको उसमे पूर्ण सफलता मिली। उसने सामाजिक सभाओ में होने वाले नृत्य, संगीत,मधपान (शराब) आदि पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। फ़ारसी परम्परा का अनुकरण करते हुए उसने दरवार में “सिजदा” एवं “पायबोस की प्रथा अपनाई और इसे शक्ति से लागू किया। उसने दरवार में हंसी-मजाक या फालतू बात करना सख्त मना कर दिया था। वह अत्यंत गम्भीर मुद्रा में दरवार में वैठता था और सिर्फ वजीर ही उससे वार्तालाप कर सकता था।
बलबन ने कठोरतापूर्वक अपने व्यक्तित्व को राजत्व के लिए बलिदान कर दिया। उसने अपने पुत्र की मृत्यु पर भी दरवार में अपनी दुर्बलता को प्रकट नही होने दिया,परन्तु वह एकान्त में अपना दुःख प्रकट करता था। समारोहों के समय दरवार की शानोशौकत दर्शनीय होती थी। इसी प्रकार जब वह जुलूस में जाता था तो सैनिक चारो तरफ चमचमाती तलवारो के साथ चलते थे। तलवारो की चमक,उसके मुख की क्रांति (ललाट या आभा) और सूर्य की चमक से जुलूस अत्यन्त प्रभवशाली लगता था। इन जुलूसों का उद्देश्य जनता के मन मे भय व आतंक उत्पन्न करना था। जो राजत्व की प्रतिष्ठा का एक मूल तत्व था।

5. राजत्व को विरासत का आधार मानना

 बलबन ने ईश्वर, शासक तथा जनता के त्रिपक्षीय संबंधों को राज्य का आधार बनाने का प्रयत्न किया। इसी कारण उसने जनहित को शासन का व्यवहारिक आदर्श बनाया। राजत्व को वह विरासत मानता था। तथा विरासत से प्राप्त होने वाला राजत्व ही वास्तविक तथा औचित्यपूर्ण है। इस प्रकार राजत्व यदि क्रूर हो तब भी जनता को उसे स्वीकार करना पड़ेगा। परन्तु जो राजत्व विरासत में प्राप्त नही होगा, वह अल्पकालीन होगा तथा जनता का समर्थन प्राप्त नही कर सकेगा।

6. धर्म को शासन का आधार मानना

 बलबन कुरान को शासन का आधार मानता था। उसका विश्वास था कि राज्य को धर्म के अनुसार चलना चाहिए, परन्तु यह केवल आदर्शवादी बलबन के विचार थे। वास्तविक परिस्थितियों के कारण उसे अपने राजनीतिक विचारों में परिवर्तन करना पड़ा। यथार्थवादी होने के कारण ही उसने इस्लाम धर्म को राजनीति से अलग रखने की चेष्टा की।

7. न्यायप्रिय होना

 बलबन का राजत्व न्याय पर आधारित था। वह न्याय को शासक का सर्वोच्च दायित्व समझता था। बलबन का विश्वास था कि केवल न्याय पालन करके ही वह न केवल अपनी मुक्ति प्राप्त कर सकता था वरन धर्म की रक्षा तथा राजकीय कर्तव्यों की भी पूर्ति कर सकता था। इसके लिए उसने “बरीद” नामक गुप्तचरों का सहारा लिया,जो साम्राज्य में घूम-घूमकर घटनाओ की जानकारी उसे देते थे। सुल्तान इन सूचनाओ के आधार पर न्याय करता था।

8. लौह और रक्त की नीति

उसने अपने राजत्व में लौह एवं रक्त की नीति को आधार बनाया। उसने अनुभव किया कि उसकी निरंकुशता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा तुर्क अमीर थे। इसके लिये उसने “तुर्कान-ए-चहलगानी” के सदस्यों का दमन करवा दिया। उसने निम्न वर्ग के तुर्को को उच्च पद प्रदान किये। इसिलिए कहा जाता है कि बलबन का राजत्व शक्ति पर आधारित था।

9. सैनिक और प्रशासनिक व्यवस्था

 बलबन द्वारा स्थापित किया गया निरंकुश राजत्व सिद्धांत बिना सैनिक सहायता एवं प्रशासनिक व्यवस्था के स्थापित नही हो सकता था। इसिलिए उसने सेना का पुनर्गठन किया और उसके प्रशिक्षण एवं वेतन की व्यवस्था की गई। सभी सैनिक अभियान गुप्त रखे जाते थे। संभवतः घोड़ो को दागने की व्यवस्था भी इसी समय प्रारम्भ की गई थी। प्रत्येक विभाग पर वह स्वयं निगरानी रखता था, और स्वयं ही अधिकारियों की नियुक्ति करता था। अधिकारियों के हाथों में अधिक शक्ति केन्द्रित न हो सके इसिलिए उसने सैनिक और आर्थिक अधिकार अलग-अलग कर दिये। इसके साथ ही साथ दो-आब में इल्तुतमिश द्वारा दी गई अनेक इक्ताओ की जाँच कराकर सक्षम व्यक्तियो को ही ये प्रदान की गई। इस प्रकार इक्तेदारी व्यवस्था पर भी प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया गया।

निष्कर्ष:

 इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यो के विवरण के आधार पर यह निष्कर्ष दिया जा सकता है कि बलबन का रजत्व सिद्धांत मूलतः शक्ति, प्रतिष्ठा और न्याय पर आधारित था। दरअसल बलबन प्रारम्भ में एक दास था, परन्तु अपनी योग्यता व प्रतिभा के बल पर वह मन्त्री, फिर शासक बना। लेकिन वह दासता से मुक्त नही हो पाया था। यही कारण था कि उसने दैवीय दायित्व की आड़ में अपनी सत्ता को वैधानिक रूप देने का प्रयत्न किया और इस कार्य मे वह पूर्णतः सफल भी रहा परन्तु अपने साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने में वह असफल रहा।

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प्रश्न 1: बलबन के राजत्व सिद्धांत का मूल आधार क्या था?

उत्तर: बलबन का राजत्व सिद्धांत इस विचार पर आधारित था कि सुल्तान की सत्ता सर्वोच्च और दैवी है। उसने माना कि शासक ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और उसे शासन करने का अधिकार ईश्वरीय इच्छा से प्राप्त है। बलबन का मत था कि राज्य में अनुशासन, न्याय और भय—ये तीनों तत्व सुल्तान की प्रतिष्ठा और शासन की स्थिरता के लिए आवश्यक हैं। उसका मुख्य उद्देश्य शासन को केंद्रीकृत कर सुल्तान की गरिमा को सर्वोपरी बनाना था।

प्रश्न 2: बलबन ने राजकीय गरिमा बनाए रखने के लिए क्या कदम उठाए?

उत्तर: बलबन ने सुल्तान की गरिमा और दरबार की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए कठोर प्रोटोकॉल लागू किए। उसने दरबार में औपचारिकता और अनुशासन का ऐसा वातावरण बनाया जिससे सुल्तान की छवि एक दैवी और सम्मानित व्यक्ति के रूप में उभरे। दरबार में उपस्थित अमीरों को सुल्तान के सामने सिर झुकाना और आदर प्रदर्शित करना अनिवार्य किया गया। इन उपायों से शासन के प्रति भय और सम्मान दोनों की भावना उत्पन्न हुई।

प्रश्न 3: बलबन के शासन सिद्धांत में ‘न्याय’ का क्या स्थान था?

उत्तर: बलबन के अनुसार, शासन की स्थिरता न्यायपूर्ण व्यवहार पर निर्भर करती है। वह मानता था कि किसी राज्य की नींव तभी मजबूत रह सकती है जब शासक निष्पक्ष और कठोर न्याय प्रदान करे। उसने अमीरों, सैनिकों और आम नागरिकों सभी पर समान नियम लागू किए। अन्याय, भ्रष्टाचार या विद्रोह को उसने शासन के लिए सबसे बड़ा खतरा माना और दोषियों के लिए कठोर दंड निर्धारित किए। इस नीति से प्रशासनिक अनुशासन और सुरक्षा दोनों सुनिश्चित हुए।

प्रश्न 4: बलबन ने प्रशासन में कौन-कौन से सुधार किए?

उत्तर: बलबन ने अपने शासनकाल में प्रशासन को केंद्रीकृत और अनुशासित बनाने के लिए अनेक सुधार किए। उसने शक्तिशाली सरदारों के समूह ‘चहलगानी’ का प्रभाव समाप्त किया ताकि सुल्तान की सर्वोच्चता कायम रहे। सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए योग्य और वफादार अधिकारियों की नियुक्ति की। साथ ही, एक प्रभावी जासूसी तंत्र स्थापित किया जिससे राज्य में होने वाली गतिविधियों की जानकारी सीधे सुल्तान तक पहुँचे। इन सुधारों से शासन अधिक स्थिर और संगठित बना।

प्रश्न 5: बलबन के राजत्व सिद्धांत का ऐतिहासिक महत्व क्या है?

उत्तर: बलबन का राजत्व सिद्धांत दिल्ली सल्तनत में सुल्तान की केंद्रीकृत सत्ता और अनुशासित शासन की परंपरा की नींव बना। उसने शासन को धार्मिक और नैतिक आधार देकर सुल्तान को केवल शासक नहीं, बल्कि ईश्वरीय प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया। उसकी नीतियों से राज्य में व्यवस्था और स्थायित्व आया, जिसने आगे चलकर अलाउद्दीन खिलजी जैसे शासकों को एक सशक्त शासन मॉडल प्रदान किया। इस प्रकार, बलबन ने मध्यकालीन भारतीय राजनीति में राजकीय सत्ता की अवधारणा को नई दिशा दी।

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