मौर्यकालीन कला की प्रमुख विशेषताएँ: स्थापत्य, मूर्तिकला और सांस्कृतिक विकास/Main Features of Mauryan Art: Architecture, Sculpture, and Cultural Development.

मौर्यकाल भारतीय कला इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। इस काल में स्थापत्य, मूर्तिकला और सांस्कृतिक रचनात्मकता ने अभूतपूर्व ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं। अशोक द्वारा निर्मित स्तंभ, गुफाएँ और स्तूप न केवल धार्मिक भावना के प्रतीक थे, बल्कि कला में तकनीकी उत्कृष्टता का भी उदाहरण थे। नीचे दिया गया चित्र मौर्यकालीन कला की भव्यता और सूक्ष्मता को दर्शाता है।

भूमिका : मौर्यकालीन कला का ऐतिहासिक महत्व

 कला किसी भी काल की मानवीय कल्पनाओं के मूर्त रूप को प्रदर्शित करती है। भारतीय इतिहास में कला परम्परा का विकास सिन्धु सभ्यता से ही प्रारम्भ हुआ परंतु स्थाई एवं निरंतर कला परम्परा का विकास मौर्य काल से ही माना जाता है। क्योंकि मौर्य काल से पूर्व लकड़ी एवं मिट्टी के कला रूपो का विकास हुआ जिसमे निरंतरता का अभाव रहा।

मौर्यकालीन कला की प्रमुख विशेषताएँ

मौर्य कला शैली जहां स्थानीय एवं भारतीय परम्परा शैली तथा विदेशी ईरानी शैली को सम्मिश्रित रूप में प्रदर्शित करती है जबकि इस पर कहां तक ईरानी प्रभाव है यह एक विमर्श का विषय है। कला समीक्षकों के अनुसार मौर्य काल मे समृद्ध राजनीतिक स्थिति में कला के विविध रूपो का विकास हुआ। राजकीय संरक्षण में जहां स्थापत्यकला को प्रधानता दी गयी जैसे मौर्य प्रसाद, अशोक स्तम्भगुहा विहारों एवं स्तूप। वही स्थानीय लोक कला में मूर्तिकला का अभूतपूर्व विकास हुआ। जिसमें स्वतंत्र कलाकारों द्वारा लोक-रुचि की वस्तुओ का निर्माण किया गया जैसे यक्ष-यक्षणी की प्रतिमाएं, मिट्टी की मूर्तियां आदि। राजकीय कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट था। जबकि लोक कला के रूपो की परम्परा युगों पूर्व से काष्ठ एवं मिट्टी में चली आई थी, जिसे अब पाषाण के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया।

(A) स्थापत्य कला

 शक्तिशाली केन्द्रीय शासन व्यवस्था के दौरान स्थापत्य कला के विभिन्न रूपो का अभूतपूर्व विकास हुआ जिनका वर्णन इस प्रकार से है—

(1)  राज प्रसाद

राजकीय कला का सबसे पहला उदाहरण चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा राज प्रसाद है। यह प्रसाद वर्तमान में पटना के निकट ‘कम्रहार’ के समीप था, जिन्हें प्रकाश में लाने का श्रेय स्नूकर महोदय को है। यह राज प्रसाद अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध था। 80 स्तम्भो वाला सभा-भवन लकड़ी के फर्श एवं छत,140 फीट लम्बा, 120 फीट चौड़ा था जो राज प्रसाद की मुख्य विशेषता है। यूनानी यात्री एरियन ने इसकी भव्यता का वर्णन करते हुए कहा है कि राज प्रसाद की शान-शौकत का मुकाबला न तो सूसा और न एकबतना (मध्य एशिया के राज प्रसाद) ही कर सकते है। चीनी यात्री फाहियान तो इसे देखकर अचंभित हुआ था तथा उसने अत्यंत भाव भरे शब्दो मे इस राज प्रसाद की प्रसंशा की है कि– “यह  राज प्रसाद मानव कृति नही है वरन देवो (देवताओ) द्वारा निर्मित है।” मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर की विशेषताओं का वर्णन किया है। इस प्रकार मौर्य युग मे काष्ठ कला अपने विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच गयी थी।

(2) स्तम्भ

 मौर्य काल के सर्वोत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्मक स्तम्भ है। स्तम्भ कला परम्परा का विकास  भारत मे इसी युग मे ही हुआ। अशोक ने इसका  निर्माण मुख्यतः धर्म के प्रचार के लिए करवाया और भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में स्थापित करवाया। इन स्तम्भो की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है-

(i) एकाश्म पत्थर से बना हुआ।
(ii) चुनार एवं मथुरा के लाल-बलुआ पत्थर से बना हुआ।
(iii) चमकदार पॉलिश का प्रयोग।
(iv) इसकी संरचनात्मक विशेषताओं को निम्न आकृति में देखा जा सकता है—


(3) स्तूप

स्तूप कला का निर्माण मौर्य काल से पहले से चला आ रहा था पर इसे व्यवस्थित संरचनात्मक रूप मौर्य काल के दौरान ही प्राप्त हुआ। स्तूप वास्तव में बौद्ध धर्म से जुड़ा एक धार्मिक स्थल है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक ने 84,000 स्तूपो का निर्माण करवाया था। हालांकि इसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है। तथापि 7 वीं सदी में भारत आने वाले चीनी यात्री ह्वेनसांग ने तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, कन्नौज, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, सारनाथ, वैशाली, गया, कपिलवस्तु आदि स्थानों में इन स्तूपो को देखा था। परन्तु दुर्भाग्य से आज ये सभी नष्ट हो चुके है। सांची तथा भरहुत, सारनाथ तथा तक्षशिला स्थित ‘धर्मराज का स्तूप’ मौर्य काल मे बने प्रमुख स्तूप है। इनकी संरचनात्मक विशेषताओं को निम्न आकृति में देखा जा सकता है–

(4) विहार

विहार मुख्यतः भिक्षुओ के निवास स्थान होते थे। मौर्य काल मे पहाड़ो की काटकर गुफा-विहारों का निर्माण कराया जाता था। गया के बराबर एवं नागार्जुन पहाड़ी में गुफा-विहार के प्रमाण मिलते है। इनका निर्माण मुख्यतः अशोक एवं उसके पौत्र दशरथ ने करवाया था। सुदामा, कर्ण चौपड़, गोपिका, लोमश ऋषि, विश्व झोपड़ी आदि गुफा-विहारों के उदाहरण है।

ये गुफा-विहार वर्गाकार एवं आयताकार रूपो में बने हुए थे। जिनकी दीवारों एवं छत पर चमकदार पॉलिश किया गया था

 मूर्तिकला

मौर्य काल के दौरान मूर्तिकला के रूप में भी कला का अभूतपूर्व विकास हुआ। इस काल मे विकसित मूर्तिकला को दो वर्गों में विभाजित करके देखा जा सकता है—- 

(i) स्तम्भ के ऊपर

 स्तम्भ के ऊपर मूर्तिकला कला का विकास राजकीय संरक्षण में हुआ। इसमें मुख्यतः पशुओं की आकृति की प्रधानता दी गयी हैं। सिंह, हाथी, बैल आदि प्रमुख थे। इसमे सबसे प्रसिद्ध शेर की आकृति है, जो सारनाथ स्तम्भ से प्राप्त हुई है। चार शेरो की ये कलात्मक मूर्ति, कला के अदभुद रूप को प्रदर्शित करती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता ये है कि स्वतंत्रता के उपरांत इस शेर की आकृति को भारत ने राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में अपना लिया। तथा इसके नीचे अंकित 24 तीलियों वाले चक्र को राष्ट्रीय ध्वज के मध्य में अंकित किया गया है। प्रमुख स्तम्भ जहां ये पशु आकृतियां मिली है– सिंह (ओरियानंदगढ़- सारनाथ), बैल (लैरिया अरेराज- रामपुरवा), हाथी (संकीशा)    

(ii) स्वतंत्र रूप से विकसित मूर्तिकला

 केन्द्रीय संरक्षण के अतिरिक्त मौर्य काल मे स्थानीय स्तर पर भी मूर्तिकला का अभूतपूर्व विकास हुआ। स्थानीय स्तर पर निर्मित यक्ष-यक्षणियो की मूर्ति लोक प्रतीकों का सूचक थी, जो आगे चलकर देवी-देवताओं के रूप में प्रचलित हुई। कलात्मक रूप से निर्मित ये मूर्तियां अपने आप मे जीवंत प्रतीत होती है। इन पर की गई चमकदार पॉलिश इन्हें और सुंदर रूप प्रदान करती है। इनके प्रमुख साक्ष्यों को निम्नलिखित रूप में देख सकते है—

* दीदार गंज (पटना) —- यक्षिणी की मूर्ति।
* बुलंदीबाग (पटना) —- नारी एवं बालक की मूर्ति।
* लोहानीपुर (पटना) —– जैन तीर्थंकर की मूर्ति।
* परखम (मथुरा) —– यक्ष की मूर्ति।
* धौली (ओडिसा) —- हाथी की मूर्ति।

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(iii) अन्य

स्थापत्य एवं मूर्ति के अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर कला के अन्य रूपो का भी विकास हुआ। मौर्य काल के दौरान निर्मित मृदभांड के कई अवशेष बिहार एवं भारत के अन्य भागो से प्राप्त हुए है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर निर्मित घेरेदार कुँए भी कला के विशेष रूप को प्रदर्शित करते हैMust Read:-

मौर्य कला और ईरानी कला की तुलना

 कुछ प्रसिद्ध विद्वान जॉन मार्शल, पर्सी ब्राउन आदि मौर्य कला को ईरानी कला की देन मानते है। मौर्यकालीन राज प्रसाद को ईरान के अखमिनिया वंश द्वारा निर्मित राज प्रसाद की नकल मानते है। मौर्य काल मे प्रारम्भ स्तम्भ परम्परा को भी ईरानी स्तम्भ परम्परा की नकल मानते है।

 मौर्य कला

* राज प्रसाद में लकड़ी एवं पत्थर का प्रयोग किया गया था।
* स्तम्भ एकाश्म पत्थर से निर्मित था।
* स्तम्भ सपाट एवं चिकने थे।
* स्तम्भ के ऊपर पशु आकृति को उकेरा गया था।
* स्तम्भ के नीचे चौकीदार आधार का अभाव है।

 ईरानी कला


*  मुख्यतः पत्थर का प्रयोग किया गया था।
* स्तम्भ कई पत्थरो को जोड़कर बनाया गया था।
* स्तम्भ दरारी था।
* स्तम्भ के ऊपर उल्टी घंटी का चित्र बना था। स्तम्भ के  नीचे चौकी का आधार है।

 निष्कर्ष

मौर्य काल भारतीय इतिहास में राजनैनिक एकीकरण के दौर का प्रारंभिक बिन्दू माना जाता है, ठीक उसी प्रकार मौर्य काल मे विकसित मौर्य कला, भारतीय कला परम्परा का प्रस्थान बिन्दू माना जाता हैं। इस काल के दौरान विकसित कला परम्परा आज भी कला प्रेमियों के मध्य प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।

FAQ / PAQ (People Also Ask)

प्रश्न 1: मौर्यकालीन कला की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं?

उत्तर: मौर्य काल की कला भारतीय सभ्यता के उत्कर्ष का प्रतीक थी। इस युग की कलाकृतियाँ अपने विशाल आकार, स्थायित्व और सूक्ष्म शिल्प कौशल के लिए प्रसिद्ध थीं। पत्थर को अत्यंत चिकना और चमकदार रूप देने की जो विशिष्ट तकनीक विकसित हुई, उसे “मौर्य पालिश” कहा जाता है। कला में धर्म, शक्ति और सौंदर्य का सामंजस्य दिखाई देता है, जो उस समय की परिष्कृत सौंदर्य दृष्टि और राजकीय संरक्षण को दर्शाता है।

प्रश्न 2: मौर्यकालीन स्थापत्य कला की क्या विशेषताएँ थीं?

उत्तर: मौर्यकालीन स्थापत्य कला में राजप्रासाद, स्तूप, स्तंभ, गुफाएँ और नगर नियोजन जैसी संरचनाएँ प्रमुख थीं। पाटलिपुत्र के राजमहल में विदेशी, विशेषकर फारसी, स्थापत्य शैली का प्रभाव स्पष्ट था। बाराबर और नागार्जुनी की गुफाएँ पत्थर काटने की अत्यंत उन्नत तकनीक का प्रमाण देती हैं। इनसे यह स्पष्ट होता है कि मौर्य काल में स्थापत्य कला तकनीकी दक्षता और कलात्मक सौंदर्य दोनों में परिपक्व थी।

प्रश्न 3: मौर्यकालीन मूर्तिकला का क्या महत्व था?

उत्तर: मौर्य युग की मूर्तिकला ने भारतीय कला को एक नया आयाम दिया। इस काल की मूर्तियाँ केवल सौंदर्य का नहीं बल्कि आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक अर्थों का भी प्रतिनिधित्व करती थीं। अशोक द्वारा निर्मित स्तंभों के शीर्ष भाग, जैसे सारनाथ का सिंह स्तंभ, कला की उत्कृष्टता और धार्मिक आदर्शों का सम्मिलन प्रस्तुत करते हैं। पशु आकृतियों—सिंह, बैल, हाथी—में शक्ति, साहस और नैतिकता के प्रतीक झलकते हैं।

प्रश्न 4: मौर्यकालीन कला में धार्मिक प्रभाव कैसे दिखाई देता है?

उत्तर: मौर्यकालीन कला पर बौद्ध और जैन धर्म का गहरा प्रभाव था। अशोक ने अपने धर्म प्रचार के लिए स्तूपों, स्तंभों और शिलालेखों का निर्माण कराया, जो नैतिकता और अहिंसा के संदेशवाहक बने। कला में प्रयुक्त प्रतीक—चक्र, कमल, सिंह और वृक्ष—धर्म और जीवन मूल्यों की प्रतीकात्मक व्याख्या करते हैं। इस युग की कलाकृतियाँ धार्मिक सहिष्णुता और मानवीय मूल्यों को प्रकट करती हैं।

प्रश्न 5: मौर्यकालीन कला का सांस्कृतिक महत्व क्या है?

उत्तर: मौर्यकालीन कला ने भारतीय संस्कृति में एक नई एकता और पहचान का निर्माण किया। इस युग की कलात्मक परंपराएँ आगे आने वाले शुंग, कुषाण और गुप्त काल की कलाओं के लिए आधार बनीं। स्थापत्य, मूर्तिकला और शिल्प में विकसित मानक भारतीय कला की निरंतरता का प्रतीक हैं। मौर्यकालीन कलाकृतियाँ आज भी भारत की सांस्कृतिक विरासत और रचनात्मक दृष्टि की गौरवपूर्ण झलक प्रस्तुत करती हैं।

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