“टिप्पणी: इस पेज पर नीचे भाषा बदलने का बटन मौजूद है। उस पर क्लिक करके आप इस आर्टिकल को अपनी पसंद की भाषा (10 भाषाओं) में पढ़ सकते हैं। |
Tip: The Language Switcher button is available at the bottom of this page. Click on it to read this article in your preferred language (10 languages).”
मौर्य साम्राज्य के इतिहास को समझने के लिए विभिन्न प्रकार के स्रोतों का उपयोग किया जाता है, जिनमें अभिलेख, शिलालेख, सिक्के, मूर्तियाँ और पुरातात्त्विक अवशेष विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये सभी स्रोत उस काल के शासन तंत्र, सामाजिक ढाँचे, धार्मिक प्रवृत्तियों और कला की स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। खासतौर पर सम्राट अशोक के शिलालेख मौर्यकालीन प्रशासन और नीतियों के सबसे प्रामाणिक साक्ष्य माने जाते हैं।

परिचय (Introduction)
मगध साम्राज्यवाद के उदय ने अंततः मौर्य साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया। मौर्य साम्राज्य भारत के महानतम साम्राज्यों में से एक था। इस साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध में नन्दो को ही नही अपितु उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रान्त में यूनानी क्षत्रपो की सत्ता का भी विनाश किया और दक्कन सहित भारत के अधिकांश भू-भाग पर अधिकार करके राजनीतिक एकीकरण के अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक, प्रशासनिक और धार्मिक क्षेत्रो में अभ्युदय तथा कला-कौशल के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
चन्द्रगुप्त मौर्य प्रथम भारतीय शासक था जिसने उत्तर-भारत का राजनीतिक एकीकरण करके विंध्य पर्वतमालाओं के दक्षिणी भारत मे भी अपनी विजयो का विस्तार किया। इस प्रकार देखा जाय तो उसने उत्तर एवं दक्षिणी दोनो क्षेत्रों को एक छत्र प्रभुसत्ता के अंतर्गत लाया। अतः चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में आक्सस की घाटी से लेकर दक्षिण में कावेरी नदी तक फैला एक विशाल साम्राज्य था। मौर्यकालीन इतिहास, सभ्यता और संस्कृति के अध्ययन हेतु हमें साहित्यिक और पुरातात्विक—दोनों प्रकार के स्रोत उपलब्ध हैं।
1. साहित्यिक स्रोत (Literary Sources)

मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी के लिए साहित्यिक स्रोतों का अपना महत्वपूर्ण स्थान है सुविधानुसार साहित्यिक सामग्री को हम दो भागों में विभक्त कर सकते है– देशी साहित्य और विदेशी साहित्य।
(A) देशी साहित्य (Indigenous Literature)
देशी साहित्य के अन्तर्गत हम संस्कृत, पाली एवं प्राकृत ग्रंथो को रख सकते हैं। इन ग्रंथों से हमे मौर्य शासको की वंशावली, उनके प्रमुख कार्यो, तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है।
(i) ब्राह्मण साहित्य

अर्थशास्त्र
मौर्य वंश के लिए विशेषतः चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन के लिए अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसकी रचना कौटिल्य ने की है। जो विष्णु गुप्त या चाणक्य के नाम से भी विख्यात है। सम्पूर्ण अर्थशास्त्र 15 ‘अधिकरण’ एवं 180 ‘प्रकरणों’ में विभक्त है। इस ग्रन्थ से न केवल राजनीतिशास्त्र का ज्ञान होता है बल्कि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की भी जानकारी होती है। अनेक स्थानों पर कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं मेगस्थनीज के यात्रा वृतांत में समानता देखने को मिलती है। इस ग्रंथ की तुलना अरस्तू के ‘पॉलिटिक्स’ एवं मैकियावेली के ‘प्रिंस’ नामक ग्रंथो से की जाती है। इसमे राज्य या राजा की उत्पत्ति, राज्य के तत्व, राजा की स्थिति उसके अधिकार एवं कर्तव्य, राज्य की नीति निर्धारण संबंधी प्रश्न, युद्ध एवं शांति के समय राजा के कर्तव्य, नगर प्रशासन, गुप्तचर एवं न्याय, सैन्य व्यवस्था इत्यादि विषयो पर विचार किया गया है।
अर्थशास्त्र की तिथि एवं लेखक के विषय मे विद्वानों में मतभेद है। अधिकांश विद्वान यथा–शामशास्त्री, के0 पी0 जयसवाल, फ्लीट, स्मिथ, जैकोबी आदि के विचारानुसार इस ग्रंथ की रचना मौर्य काल मे हुई थी एवं इसके रचियता चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री कौटिल्य थे। कुछ अन्य विद्वान जैसे विंटरनीज, जाली, कीथ, भंडारकर इत्यादि इसका रचनाकाल ईसा की पहली शताब्दी से तीसरी शताब्दी मानते है। कुछ भी रहा हो इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्राचीन राजनीतिशास्त्र पर यह प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ है। अनेक त्रुटियों के बावजूद मौर्य प्रशासन के अध्ययन के लिए इस ग्रंथ की उपेक्षा नही की जा सकती है।
मुद्राराक्षक
अर्थशास्त्र के अतिरिक्त अन्य संस्कृत ग्रंथो से भी मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी मिलती है। विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षक नाटक चन्द्रगुप्त मौर्य एवं उसके प्रधानमंत्री चाणक्य पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है। इस नाटक से उन परिस्थितियों एवं घटनाक्रमो की जानकारी मिलती है, जिसने नन्द वश का पतन एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। राजनीति के अतिरिक्त इस नाटक से मौर्यकालीन सभ्यता एवं संस्कृति की भी जानकारी मिलती है।
पुराण
कुछ पुराणों से भी मौर्यवंश के विषय मे जानकारी मिलती है जैसे- विष्णु पुराण से जानकारी मिलती है कि मौर्य साम्राज्य की स्थापना करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म नन्द राजा की मुरा नामक पत्नि से हुआ था। इस प्रकार ब्राह्मण ग्रंथ चन्द्रगुप्त मौर्य को शुद्र या नीच कुल से उत्पन्न बताता है।
अन्य संस्कृत ग्रंथ
अर्थशास्त्र, मुद्राराक्षक एवं पुराणों के अतिरिक्त भी कुछ अन्य ग्रंथों से भी मौर्य वंश के विषय मे जानकारी मिलती है। इनमे महत्वपूर्ण है- पाणिनि की अष्टाध्यायी, पतंजलि का महाभाष्य, सोमदेव की कथासरित्सागर, क्षेमेन्द्र की वृहत्कथामंजरी, कल्हण की राजतरंगिणी आदि रचनाऐं भी मौर्य वंश की जानकारी देती है। यह सत्य है कि इनमे बहुत सी बातें अतिशयोक्तिपूर्ण कही गयी है, फिर भी इन ग्रंथों की उपयोगिता को नकारा नही जा सकता।
बौद्ध साहित्य
मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी के लिए बौद्ध साहित्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मौर्य सम्राट अशोक के विषय मे तो इन ग्रंथों से अत्यधिक मात्रा में सामग्री उपलब्ध है। बौद्ध ग्रंथ संस्कृत एवं पाली भाषा मे लिखे गए हैं। दीपवंश, महावंश, दिव्यवदान, अशोकावदान, मंजूश्रीमूलकल्प, मिलिंदपन्हों इत्यादि ग्रंथो से मौर्यो के कुल के निर्धारण में सहायता मिलती है। अशोक की जीवनी एवं बौद्ध धर्म के प्रति उसका लगाव भी इन ग्रंथों से परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप महावंश टिका के अनुसार चाणक्य ने नन्द वंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्यो को जम्बूद्वीप का सम्राट बना दिया। मंजुश्रीमूलकल्प में तो प्राक मौर्यकाल से लेकर हर्षवर्द्धन के समय तक की राजनीतिक घटनाओ का जिक्र किया गया है। अशोकावदान, दिव्यवदान, महावंश और दीपवंश से अशोक की प्रारम्भिक जीवनी पर प्रकाश पड़ता है। इन्ही ग्रंथो से जानकारी मिलती है कि अशोक अपने 99 भाईयों की हत्या करके किस प्रकार गद्दी पर बैठा। अशोक का हृदय परिवर्तन, बौद्ध धर्म को प्रश्रय देना आदि। इस प्रकार बौद्ध साहित्य भी मौर्य वंश की जानकारी के लिए महत्वपूर्ण साधन है।
जैन साहित्य
मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी के लिए जैन साहित्य का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इस सन्दर्भ में परिशिष्टपर्व तथा कल्पसूत्र विशेष महत्व के है। चन्द्रगुप्त तथा अंतिम नन्द शासक के संधर्ष की कहानी परिशिष्टपर्व में उल्लेखित है। कल्पसूत्र से भी चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय मे जानकारी मिलती है। हेमचंद्रकृत स्थविरावलिचरित भी चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रारंभिक जीवन की जानकारी देती है।
(B) विदेशी साहित्य (Foreign Sources)
यूनानी-रोमन वृतांत एवं साहित्य
यूनानी एवं रोमन लेखकों के विवरण से मौर्यकालीन इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है। यूनानी लेखकों ने चन्द्रगुप्त मौर्य के लिए सैण्ड्रोकोट्स तथा एण्ड्रोकोट्स नाम का प्रयोग किया है। सर्वप्रथम सर विलियम जॉन्स ने इन नामो को चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ जोड़ा है। इससे यह महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालने में सहायता मिलती है कि चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर का समकालीन था। सिकंदर के समकालीन लेखकों में नियार्कस, आनेसिक्रेट्स, अरिस्टोबुलस के विवरण चन्द्रगुप्त के विषय मे कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करते हैं। सिकंदर के बाद के लेखकों में सबसे महत्वपूर्ण मेगास्थनीज का विवरण है। वह यूनानी शासक सेल्युकस के राजदूत के रूप में पाटलिपुत्र आया और लगभग 6 वर्षो तक यहाँ रहा। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय मे तथा तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था का आंखों देखा विवरण अपनी पुस्तक “इण्डिका” में किया है। दुर्भाग्यवश यह ग्रंथ अपने मूल रूप में उपलब्ध नही है परन्तु इसके अंश उद्वरण के रुप मे परवर्ती लेखकों के ग्रंथ मे प्राप्त होते है। इनके अतिरिक्त स्ट्रेबो, डायोडोरस, एरियन, प्लूटार्क, प्लिनी, डायोनिसियस आदि के ग्रंथों से भी इस काल का विवरण प्राप्त होता है।
चीनी वृतांत
यूनानी एवं रोमन यात्रा वृतांतों के अतिरिक्त चीनी यात्रियों फाहियान, ह्वेनसांग एवं इत्सिंग के यात्रा विवरणों से भी मौर्य काल के विषय मे कुछ जानकारी मिल जाती है। ये बौद्ध ग्रंथों की खोज में भारत आये थे। ह्वेनसांग और फाहियान अशोक के हृदय परिवर्तन के पूर्व उसके क्रूर स्वभाव का वर्णन करते है। ये अशोक द्वारा बनवाये गये स्तूपो का भी उल्लेख करते है। इस प्रकार चीनी यात्रियों के वृतांत से भी मौर्यकाल के विषय मे कुछ जानकारी प्राप्त होती है।
2. पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources)

अगर देखा जाय तो साहित्यिक स्रोतों से स्प्ष्ट जानकारी नही मिल पाती है क्योंकि साहित्यिक सामग्रियों में अनेक खामियां हैं, सबसे पहली समस्या तो काल निर्धारण सम्बन्धी है। इनका काल निश्चित करना बहुत कठिन है। दूसरे अधिकांश ग्रंथ धार्मिक भावना से प्रभावित है, इसिलिये भी इनसे निष्पक्ष जानकारी नही मिल पाती है। विदेशी यात्रियों के विवरण से अतिश्योक्तिपूर्ण बाते कही गयीं है। ऐसी स्थिति में हमे पुरातात्विक स्रोतों का सहारा लेना पड़ता है। जो ज्यादा प्रमाणिक है। इस कोटि में हम सर्वप्रथम स्थान अभिलेखों को दे सकते हैं। अशोक पहला भारतीय सम्राट था जिसने राजाज्ञाओं को शिलालेखों पर खुदवाकर जनता के समक्ष रखा। अभिलेखो में प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया है। कुछ अभिलेख खरोष्ठी एवं आरमेइक तथा यूनानी में भी लिखे गये है। अशोक के अभिलेखों से उसकी गृह तथा
अशोक के अभिलेखों को तीन वर्गो में विभक्त किया गया है, पहली श्रेणी में शिलालेख को रखा जा सकता है।
अभिलेख (Inscriptions)
शिलालेख में से कुछ को लघु शिलालेख के नाम से जाना जाता है। शिलालेखों की संख्या लगभग 19 है। कुछ महत्वपूर्ण अभिलेखों की प्राप्ति स्थान इस प्रकार है– ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर,जटिंगरामेश्वर (मैसूर-कर्नाटक) बैराट, भाब्रू(राजस्थान), कालसी(देहरादून), गिरनार(गुजरात), धौली, जौगढ़ (उड़ीसा), शाहबाजगढ़ी (पेशावर,पाकिस्तान) एवं मानसेरा (हजारा, पाकिस्तान), कांधार और लाघमान (अफगानिस्तान)।
स्तम्भ लेख
इनकी सांख्य 11 है। ये अभिलेख रूममिनदेइ (उत्तर प्रदेश), निगलिवा, दिल्ली- टोपरा, दिल्ली-मेरठ, इलाहाबाद-कोसम(कौशाम्बी), लौरिया-अरेराज, लौरिया-नंदनगढ़(चम्पारणबिहार) सारनाथ, सांची (मध्यप्रदेश) आदि स्थानों पर स्थित है।
गुहा अभिलेख
ये अभलेख गया के पास की बराबर की पहाड़ियों में बनी गुफाओ में उत्कीर्ण है। इनकी संख्या तीन है– सुदामा गुहा, विश्व झोपड़ी गुहा और कर्ण चौपण गुहा। अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त चन्द्रगुप्त मौर्य के सोहगौरा अभिलेख (गोरखपुर, उत्तर प्रदेश) और महास्थान अभिलेख (बोगरा, बांग्लादेश) तथा जूनागढ़ के शक शासक रुद्रदामन के जूनागढ़ अभलेख से भी मौर्य वंश के इतिहास के विषय मे जानकारी मिलती है।
मुद्राएँ (Coins)
मौर्यकालीन सिक्के चूंकि अभिलिखित नही है, इसिलिये सिक्को से कोई निश्चित जानकारी नही मिलती है, परन्तु इस काल मे आहत सिक्के बहुत पाये गए हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि चाँदी के आहत सिक्के जिन पर मोर, पर्वत और अर्द्वचन्द्र का चित्र अंकित है वे मौर्यो के ही सिक्के है, परन्तु इनकी पहचान संदिग्ध है। मौर्य काल मे चाँदी और ताँबे के सिक्के बनते थे। राज्य का टकसाल पर नियंत्रण था। मौर्यो कालीन सिक्को से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मौर्यो की आर्थिक स्थिति अच्छी रही होगा।
मृदभाण्ड एवं अन्य वस्तुएँ
मौर्यकालीन स्थलों की खुदाई से अनेक ऐसी वस्तुए प्रकाश में आई है, जो समकालीन सभ्यता की झाँकी प्रस्तुत करती है। इस काल मे उत्तरी-काली पॉलिस वाले मृदभाण्ड काफी अच्छे बनाये जाते थे। भवनों में पक्की ईंटो का प्रयोग होने लगा था। खुदाई से भवनों के निर्माण में लकड़ी एवं पत्थरों के प्रयोग का भी पता चलता है। इसी प्रकार अशोक के स्तम्भो की बनावट से मौर्यकालीन कला की झाँकी मिलती है। मौर्यकालीन कला के जो नमूने प्राप्त हुए हैं, उनसे भी इस काल की सांस्कृतिक प्रगति का पता लगाया जा सकता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
उपर्युक्त विवरणों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि मौर्य कालीन इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी के लिए हमारे पास साहित्यक एवं पुरातात्विक दोनो ही स्रोत उपलब्ध है। लेकिन इन स्रोतों को हम जब तक ठोस प्रमाण के रूप में स्वीकार नही कर सकते जब तक किसी भी स्तम्भ लेख या मुद्रा से इसकी तिथि अंकित नही पायी जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि अभी तक इस विषय मे कोई मूल प्रमाण नही मिला है, जिसे हम निःसंदेश कह सके।
PAQ (People Also Ask)
प्रश्न 1: मौर्य वंश के इतिहास के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं?
उत्तर: मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी हमें तीन प्रमुख प्रकार के स्रोतों से प्राप्त होती है — अभिलेख, साहित्य, और विदेशी विवरण। अभिलेखों में विशेष रूप से अशोक के शिलालेख महत्वपूर्ण हैं, जो शासन और धर्म नीति का प्रत्यक्ष प्रमाण देते हैं। साहित्यिक स्रोतों में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, दिव्यावदान, और महावंश जैसे ग्रंथ मौर्यकालीन प्रशासन, धर्म और समाज की झलक प्रस्तुत करते हैं। वहीं मेगस्थनीज़ की इंडिका जैसे विदेशी विवरण उस समय के भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बाहरी दृष्टि से दिखाते हैं। इन सभी स्रोतों के संयुक्त अध्ययन से मौर्यकाल का एक संपूर्ण चित्र सामने आता है।
प्रश्न 2: अशोक के शिलालेख मौर्य इतिहास के अध्ययन में क्यों महत्वपूर्ण हैं?
उत्तर: अशोक के शिलालेख मौर्यकाल के प्रत्यक्ष ऐतिहासिक प्रमाण हैं, क्योंकि ये स्वयं सम्राट के आदेशों और विचारों को दर्शाते हैं। इन अभिलेखों से हमें अशोक की धम्म नीति, उसकी प्रशासनिक समझ, तथा धार्मिक सहिष्णुता की जानकारी मिलती है। भारत और दक्षिण एशिया के विभिन्न भागों में पाए गए लगभग तीस से अधिक शिलालेखों से मौर्य साम्राज्य की भौगोलिक सीमा और उसके प्रशासनिक विस्तार का भी ज्ञान होता है। इनका लेखन प्राकृत, ग्रीक, और अरामाइक जैसी भाषाओं में हुआ है, जो उस युग के अंतरराष्ट्रीय संपर्कों को दर्शाता है।
प्रश्न 3: कौटिल्य के अर्थशास्त्र से मौर्यकाल के बारे में क्या जानकारी मिलती है?
उत्तर: अर्थशास्त्र कौटिल्य द्वारा रचित एक गहन ग्रंथ है, जो मौर्यकालीन शासन-व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। इसमें राज्य के विभिन्न अंगों—प्रशासन, कर व्यवस्था, सेना, व्यापार, कृषि, और जासूसी तंत्र—का विस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मौर्य शासन अत्यंत संगठित और केंद्रीकृत था, जिसमें राजा सर्वोच्च अधिकारी होता था। यह ग्रंथ मौर्यकालीन राजनीति और अर्थनीति दोनों का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक आधार प्रदान करता है।
प्रश्न 4: विदेशी यात्रियों के विवरण मौर्यकाल की क्या जानकारी देते हैं?
उत्तर: मौर्यकाल के विषय में विदेशी यात्रियों, विशेषकर यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़, के विवरण अत्यंत मूल्यवान हैं। उसने अपने ग्रंथ इंडिका में चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल का सजीव चित्रण किया है। इस ग्रंथ से पाटलिपुत्र की नगरीय संरचना, प्रशासनिक व्यवस्था, सामाजिक वर्गों, और कृषि प्रणाली के बारे में जानकारी मिलती है। मेगस्थनीज़ के विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि मौर्यकालीन भारत एक सुव्यवस्थित और समृद्ध साम्राज्य था, जहाँ शासन और समाज दोनों अनुशासित ढंग से संचालित होते थे।
प्रश्न 5: बौद्ध और जैन साहित्य से मौर्यकाल की कौन-सी बातें ज्ञात होती हैं?
उत्तर: मौर्यकाल की धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों को समझने में बौद्ध और जैन साहित्य अत्यंत सहायक हैं। महावंश, दिव्यावदान, और अशोकावदान जैसे बौद्ध ग्रंथों में सम्राट अशोक के जीवन, उनके बौद्ध धर्म अपनाने और धर्म प्रचार की घटनाओं का वर्णन मिलता है। वहीं जैन ग्रंथों में चंद्रगुप्त मौर्य के जैन धर्म ग्रहण और दक्षिण भारत में उनके संन्यास जीवन का उल्लेख है। इन स्रोतों से यह स्पष्ट होता है कि उस समय धर्म न केवल आस्था का विषय था, बल्कि शासन और समाज दोनों पर उसका गहरा प्रभाव था।
