Alauddin Khilji Administration: Policies, Reforms and Key Measures Explained.

अलाउद्दीन खिलजी का प्रशासन अपनी कठोर नीतियों, मजबूत शासन और व्यावहारिक सुधारों के लिए प्रसिद्ध है। उनकी नीतियों ने दिल्ली सल्तनत को संगठित किया, विद्रोहों पर नियंत्रण स्थापित किया और राजस्व, न्याय तथा सैन्य व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाया। यहां उनके संपूर्ण प्रशासनिक ढांचे का सरल और स्पष्ट विवरण प्रस्तुत है।

 परिचय (Introduction)

अलाउद्दीन खिलजी ने 20 वर्षो तक शासन किया और अपने जीवन का अधिकांश समय युद्ध लड़ने में व्यतीत किया जो  उसके साम्राज्यवादी शासक होने का प्रमाण है। इसके अतिरिक्त “ सिकंदर-ए-साहनी “ की उपाधि भी उसकी महत्वकांक्षा को प्रामाणिक करती है। प्रशासक के रूप में सल्तनत काल के शासकों में अलाउद्दीन खिलजी का बहुत ऊँचा स्थान है। उसने समयानुकूल और व्यवहारिक शासन व्यवस्था की स्थापना की।

   अलाउद्दीन खिलजी ने उत्तर भारत और दक्षिण भारत में एक समान नीति निर्धारण के स्थान पर दो विभेदपरक नीतियों से शासन किया था। उत्तर भारत में उसने सम्मेलन की नीति को अपना कर अपने हाकिमों के माध्यम से शासन किया जबकि दक्षिण भारत में उसने अधीनस्थ नीति का सहारा लेते हुए वही के स्थानीय शासक द्वारा ही  शासन संचालित करके अधिकतम लाभ प्राप्त किया।

केंद्रीय शासन: मजबूत और नियंत्रित प्रशासन

(1) सुल्तान की स्थिति और उसके मंत्री 

 अलाउद्दीन खिलजी सैद्धान्तिक और व्यवहारिक रूप से शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी था।  राज्य की सभी शक्तियाँ उसी के हाथों में केंद्रित थी। वह एक निरंकुश शासक था। उसने न तो अमीरों के प्रभाव स्वीकार किया न ही उलेमाओ के आदेशों का। वह  कार्यकारिणी, न्याय,राजस्व,एवं सेना का सर्वोच्च अधिकारी था। राज्य में सारी नियुक्तियां उसी की इच्छानुसार होती थी। उसके मंत्री भी उसके सलाहकार न होकर उसके सेवक के समान थे। जिन्हें सुल्तान की आज्ञा का पालन करना पड़ता था। उनकी सलाह को मनाना न मनना सुल्तान की इच्छा पर निर्भर करता था। प्रांतीय सूबेदारों पर भी उसका कठोर नियंत्रण रहता था।

 सुल्तान का सबसे निकटतम सहयोगी बजीर होता था। वह दीवान-ए-वजारत (वित्त विभाग) का प्रमुख होता था।  राजस्व वसूली की जिम्मेदारी उसी की होती थी। वह अन्य मंत्रियों एवं विभगो के कार्यो की देखभाल भी करता था। इसके अतिरिक्त प्रशासन में सहयोग देने के लिए राज्य में अन्य मत्वपूर्ण मंत्री एवं विभाग  भी होते थे यथा- दीवान-ए-आरिज, नामक विभाग का मंत्री आरिज-ए-मुमालिक (युद्ध मंत्री) कहलाता था। दीवान-ए-इंशा (पत्राचार विभाग) विभाग का प्रधान दबीर-ए-खाश होता था।  दीवान-ए-रसालत विदेश विभाग था। इसके अतिरिक्त अलाउद्दीन खिलजी ने एक नये विभाग की स्थापना की, जो दीवान-ए-रियासत के नाम से जाना गया। यह बाजार एवं व्यापारियों पर नियंत्रण रखता था। इन विभगो एवं मंत्रियों के अतिरिक्त केंद्रीय सरकार के अनेक कर्मचारी थे, जो विभिन्न विभगो से संबंधित कार्यो की देखभाल करते थे।

(2) अलाउद्दीन खिलजी के चार अध्यादेश (Four Key Ordinances)

 साम्राज्य में बढ़ते हुए विद्रोह को समाप्त करने के लिए उन्होंने चार अध्यादेश जारी किए—

(i) संपत्ति की जब्ती

 अपने पहले अध्यादेश के द्वारा उसने अमीरों और धनी व्यक्तियों की संम्पत्ति को छीन लिया,उपहार में दी जमीन वापस ले ली गयी,पेंशन बन्द कर दी गई,कर मुक्त भूमि पर पुनः कर लगा गया। धनी व्यक्तियो पर जबर्दस्ती कर लगाये गए,कुछ नये कर लगाए गए,प्रचलित करो में वृद्धि की गई। फलतः अधिकांश  व्यक्ति दरिद्र बन गए। इसका परिणाम यह हुआ कि आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण विद्रोह की तरफ से उनका ध्यान हट गया।

(ii) गुप्तचर विभाग का गठन

अपने दूसरे अध्यादेश के अनुसार एक सुसंगठित गुप्तचर विभाग की स्थापना की गयी। ये गुप्तचर राज्य में होने वाली प्रत्येक घटनाओ की सूचना सुल्तान को पहुँचाया करते थे। गुप्तचरों के भय से राज्य के अमीरों की विद्रोही भावना नियंत्रित हो गयी।

(iii) मद्य और नशीले पदार्थों पर नियंत्रण

 सुल्तान का तीसरा कार्य था  मद्य  निषेध को लागू करना। अमीरों की मद्यपान गोष्ठियों को बन्द करवा दिया, जुआ खेलने एवं भांग के सेवन पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया। सुल्तान का यह नियम बहुत कारगर सिद्ध नही हो सका, इसमे संशोधन करने पड़ा। व्यक्तिगत तौर पर शराब  का सेवन प्रतिबंधित करना पड़ा।

(iv) अमीरों की सभाओं पर प्रतिबंध

इस अध्यादेश के अन्तर्गत सुल्तान ने अमीरों और सरदारों की दावतों एवं विवाह समाहरोह पर प्रतिबंध लागू किया गया। क्योंकि सुल्तान का मानना था कि इन दोनों कृतियों से  जिस एकता का निर्माण होता है, उससे साम्राज्य की एकता विखंडन में बदल जाती है।

3) राज्य के लाभ के लिये कानून

 अलाउद्दीन खिलजी ने  शरीयत के कानून के स्थान पर राज्य के लाभ के लिए कानून निर्मित किये थे। क्योंकि उन्होंने कहा था कि “शरीयत क्या है,? मैं नही जानता, लेकिन वे इतना अवश्य जानते है कि राज्य का लाभ क्या है?” इस प्रकार उन्होंने उलेमा वर्ग से स्वतंत्र होकर शासन किया और खलीफा की सत्ता को नाममात्र के लिये स्वीकार किया, जो उनकी ‘नासिर-अमीन-उल-मोमनीन’ की उपाधि से सिद्ध हो जाता है।

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(4) भू-राजस्व व्यवस्था: राज्य की मुख्य आय

 अलाउद्दीन खिलजी के राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भू-राजस्व था। उसने लगान निर्धारित से पूर्व भूमि की माप (मसाहत) करवाया और भूमि कर को 50% (1/2) निर्धारित किया। इसके अतिरिक्त नवीन करो के रूप में मकान कर, चारई कर (चारागाह कर) जैसे नवीन कर आरोपित किये गये। हिन्दुओ की विद्रोही प्रवृत्ति को समाप्त  करने के लिए उसने खुत, मुकद्दम, और चौधरी के पद उनसे छीन कर उन्हें आर्थिक  रूप से पंगू बना डाला। अपने आर्थिक प्रशासन के लिये अलाउद्दीन खिलजी ने दीवान-ए-मुस्तखराज एवं दीवान-ए-रियासत नामक विभाग का सृजन किया। राज्य में सरकारी तंत्र द्वारा कही भी रिसवत और बेइमनी (जाल-साझी) न की जाय  इसीलिए सबके वेतनमान में वृद्धि की गई।

 (5) न्याय व्यवस्था: निष्पक्ष लेकिन कठोर न्याय

 अलाउद्दीन खिलजी ने अपने साम्राज्य में निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था की। वह स्वयं ही  सर्वोच्च न्यायाधीश था। सुल्तान के पश्चात न्यायिक व्यवस्था का प्रधान काजी-उल-कुजात था। उसके नीचे नायव काजी या अदल और मुफ़्ती होते थे। प्रान्तों में भी केन्द्र के अनुरूप ही न्यायिक व्यवस्था स्थापित की गई थी। दण्ड विधान अत्यंत कठोर थे। कठोर दण्ड द्वारा ही साम्राज्य में शान्ति स्थापित की गई थी।

(6) सैन्य सुधार: मजबूत और अनुशासित सेना

अपनी प्रशासनिक और साम्राज्यवादी नीति के संचालन के लिये  अलाउद्दीन खिलजी ने केंद्र में एक स्थायी सेना रखी और उसे नकद वेतन दिया। सैनिक और घुड़सवार की पहचान के लिये क्रमशः हुलिया एवं दाग प्रथा का प्रचकन किया। उत्तर-पश्चिमी सीमा से राज्य की रक्षा हो सके,उसके लिए उसने बलबन द्वारा  निर्मित पुराने किलो का पुनर्निर्माण करवाया और सामरिक दृष्टिकोण से  महत्वपूर्ण स्थानों पर नवीन किलो का निर्माण भी करवाया।

(7) डाक और गुप्तचर व्यवस्था

गुप्तचर व्यवस्था की कार्यकुशलता में  अलाउद्दीन खिलजी की डाक व्यवस्था ने भी सहायता पहुँचाई। डाक व्यवस्था सेना के लिये भी आवश्यक थी। अतः सुल्तान ने इस तरफ भी विशेष ध्यान दिया। उसके द्वारा सुल्तान को दूरस्थ क्षेत्रों में घटित, घटनाओ की सूचना भी शीघ्र ही मिल जाती थी। विद्रोह एवं युद्ध के अवसरों पर डाक व्यवस्था से पर्याप्त सहायता  मिलती थी।

निष्कर्ष

  उपर्युक्त विवरणों से सिद्ध हो जाता है कि वह अपने समय का एक कुशल एवं व्यवहारिक शासक था।  यद्यपि उसके  प्रशासन में भय और रक्तपात  के छीटें देखने को मिलते है। उसके सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि यह तत्कालीन समय की आवश्यकता का परिणाम था। अतः यह कहा जा सकता है कि अलाउद्दीन खिलजी एक कर्मठ सैनिक, सफल सेनापति,कुशल कूटनीतिज्ञ, महान साम्राज्यवादी,तथा श्रेष्ठ शासन प्रबन्धक के गुणो से युक्त था।

FAQs — अलाउद्दीन खिलजी का प्रशासन

Q1. अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासन का मुख्य उद्देश्य क्या था?

उत्तर: अलाउद्दीन खिलजी का मुख्य लक्ष्य अपनी केंद्रीय सत्ता को इतना मजबूत बनाना था कि किसी भी तरह की बगावत पनप न सके। इसके लिए उन्होंने राजस्व बढ़ाने और शासन को स्थिर रखने वाले कई निर्णायक कदम उठाए।

Q2. अलाउद्दीन खिलजी ने चार प्रमुख अध्यादेश क्यों जारी किए थे?

उत्तर: इन चार अध्यादेशों के माध्यम से अलाउद्दीन खिलजी ने अमीरों की बढ़ती ताकत पर अंकुश लगाने, उन पर सघन निगरानी बनाए रखने, सामाजिक अनुशासन को सुदृढ़ करने और संभावित विद्रोहों को पहले ही रोकने का प्रयास किया था।

Q3. दीवान-ए-रियासत विभाग का क्या कार्य था?

उत्तर: दीवान-ए-रियासत अलाउद्दीन खिलजी द्वारा स्थापित एक महत्वपूर्ण विभाग था, जिसका काम बाज़ारों की व्यवस्थित देखरेख करना, वस्तुओं के दाम तय करना और व्यापारियों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखना था।

Q4. खिलजी की राजस्व व्यवस्था की मुख्य विशेषता क्या थी?

उत्तर: खिलजी शासन की राजस्व व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण करवाया गया और कृषि उपज पर कर की दर लगभग आधी (50%) निर्धारित की गई। इससे राजकोष मजबूत हुआ और प्रशासनिक पकड़ भी बढ़ी।

Q5. अलाउद्दीन खिलजी को एक सफल प्रशासक क्यों माना जाता है?

उत्तर: अलाउद्दीन खिलजी को प्रभावी प्रशासक इसलिए माना जाता है क्योंकि उन्होंने सेना, राजस्व, न्याय व्यवस्था, बाजार नियंत्रण और केंद्रीय शासन से जुड़े क्षेत्रों में कठोर लेकिन सफल सुधार लागू किए, जिनसे दिल्ली सल्तनत अधिक संगठित और शक्तिशाली बनी।

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