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भक्ति आंदोलन मध्यकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण जन आंदोलन था, जिसने समाज, धर्म और संस्कृति में नई सोच लाई। उस दौर के जाति-भेद, कठोर कर्मकांड और धार्मिक कट्टरता के बीच इस आंदोलन ने लोगों को सरल भक्ति, प्रेम और समानता का मार्ग दिखाया। कबीर, गुरु नानक, रामानंद और चैतन्य जैसे संतों की वाणियों ने समाज में भाईचारे और नैतिक जागृति को बढ़ावा दिया। नीचे दिए गए विवरण और चित्र इस आंदोलन को और स्पष्ट रूप से समझने में मदद करते हैं

परिचय
भक्ति आंदोलन क्या है? सल्तनत काल से ही हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का काल था। दिल्ली के सुल्तानों ने हिन्दू धर्म के प्रति अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिये थे। उन्होंने अनेक मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया था। जिससे हिन्दुओ ने अपने धर्म की रक्षा के लिऐ एकेश्वरवाद को महत्त्व दिया और धर्म सुधारको ने एक आंदोलन चलाया यही आन्दोल भक्ति आंदोलन के नाम से विख्यात हुआ।
भक्ति आंदोलन के उदय और प्रसार के कारण
भारत के मध्यकालीन इतिहास में भक्ति आंदोलन का विशेष स्थान है। भक्ति आंदोलन एक लोकप्रिय जन आंदोलन था। जिसने सामाजिक, धार्मिक, तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ी और भातीय संस्कृति को अत्यधिक प्रभावित किया। भक्ति आंदोलन का विकास दो चरणों मे हुआ, प्रथम चरण 7वी से 13 वी शताब्दी तक चला,जब दक्षिण भारत में इसका प्रारम्भ हुआ। दूसरा चरण 13 वी से 16 वी शताब्दी के मध्य विकसित हुआ। इस आंदोलन का सम्बंध मुख्य रूप से हिन्दू धर्म के साथ था। उत्तरी भारत में यह आंदोलन अपने दूसरे चरण में इस्लाम के सम्पर्क में आया और इसकी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए इससे प्रभावित, उत्तेजित और आन्दोलित हुआ।
भक्ति आंदोलन के करण—– भक्ति आंदोलन के कारणों का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है—-
1 भक्ति मार्ग की लोकप्रियता
भक्ति आंदोलन का प्रारंभ 7 वी शताब्दी से दक्षिण भारत से हुआ। 13 वी शताब्दी से उत्तर भारत भी इस आंदोलन का प्रमुख केन्द्र बन गया। इस समय तक जैन और बौद्ध धर्म की अवनति हो चुकी थी। ब्राह्मण धर्म मे शैव और वैष्णव सम्प्रदाय प्रमुख बन गये थे। परन्तु उनमे अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड, आदि का समावेश हो चुका था। इस समय उत्तरी भारत मे इस्लाम धर्म का प्राचर हुआ। इस्लाम धर्म की सरलता से प्रभावित होकर ब्राह्मण धर्म को सरल और अनुग्रही बनाने का प्रयास किया गया। प्राचीन भारत में आडम्बरो से क्षुब्ध होकर लोगो ने ज्ञान-मार्ग,कर्म- मार्ग, एवं भक्ति-मार्ग का सहारा लिया था। बौद्ध धर्म और भागवत सम्प्रदाय ने भक्ति-मार्ग का सहारा लिया था, जिससे जनता अत्यंत प्रभावित हुई थी। आठवीं शताब्दी से शंकराचार्य ने पुनः ज्ञान-मार्ग को मोक्ष प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया। और अद्वैतवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया, परंतु सामान्य जनता इस मार्ग को स्वीकार नहीं कर सकी। मोक्ष प्राप्ति का सही और सरल मार्ग उन्हें भक्ति में नजर आया। दक्षिण भारत में 7 वी से 12 वी शताब्दी के मध्य शैव “नयनार” और वैष्णव “अलवार” सम्प्रदायो ने भक्ति मार्ग का अवलम्बन कर पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर ली थी। अतः उत्तर भारत के धर्म सुधारको ने भी भक्ति मार्ग को सरल और सभी के लिए आसान पाया। इन संतो ने धर्म सुधार के अतिरिक्त सामाजिक सुधारो की ओर भी ध्यान दिया। ऐसा उन्होंने इस्लामिक व्यवस्था से प्रभावित होकर किया।
2 इस्लाम धर्म का प्रभाव एवं चुनौती
मध्यकालीन भारत मे यहाँ इस्लामिक राज्य स्थापित हो गया था। सल्तनत काल के सुल्तानों ने हिन्दुओ के प्रति जो धार्मिक असहिष्णुता की नीति अपनायी, मन्दिरों का विनाश किया, बलपूर्वक हिन्दुओ को इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया। इससे हिन्दू संस्कृति पर गहरा आघात पहुँचा। दूसरी ओर हिन्दू समाज मे निम्न जातियों से बहुत घृणा की जाती थी। जबकि इस्लाम धर्म मे सभी से समान व्यवहार किया जाता था। उस समय इस्लाम धर्म बहुत ही सरल था। जिसमे व्यर्थ के रीति-रिवाजों के लिए कोई स्थान नही था। इन कारणों से बहुत से हिन्दू, विषेषकर निम्न जातियों से सम्बंधित हिन्दू इस्लाम मे सम्मिलित होने लगे थे। इस खतरे को समाप्त करने के लिये, तथा हिन्दू धर्म की सुरक्षा के लिए भक्ति आंदोलन आरम्भ हुआ।
3 महान सुधारकों का उदय

मध्यकाल में भारत के विभिन्न भागों में अनेक महान सुधारको का उदय हुआ। इनमे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, जयदेव, चैतन्य,रामानन्द, बल्लभाचार्य, निम्बार्क, आदि के नाम प्रमुख थे। इन प्रचारको (धर्म सुधारको) ने बड़े साहस तथा उत्साह से हिन्दू धर्म के दोषों के विरूद्ध आवाज उठाई और भक्ति आंदोलन को तीव्रता प्रदान की। सच तो यह है कि भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति के लिए यही संत उत्तरदायी हैं, उनके बिना इस आंदोलन की कल्पना ही नही की जा सकती है।
4 सूफी मत का प्रभाव
मध्यकालीन भारत मे भक्ति आंदोलन के उदय में सूफी मत का भी बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव रहा। सूफी संतों ने ईश्वर की एकता, प्रेम, गुरुभक्ति और मनुष्य सेवा पर बल दिया। मुस्लिम सूफी संत बाबा फरीद, मुईनुद्दीन चिश्ती, जायसी,कुतुबन,तथा निजामुद्दीन औलिया आदि थे। इनके सिद्धांत हिन्दू धर्म तथा भक्ति लहर के साथ पारस्परिक मिलते-जुलते थे। इस प्रकार से हिन्दू-मुस्लिम एकता पैदा हुई।
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5 आश्रय और मानसिक शांति की खोज
इस समय मे हिन्दू समाज अपनी राजनीतिक सत्ता खो चुका था। तथा पराधीनता से मुक्त होने का उन्हें कोई मार्ग दिखाई नही देता था। अतः उनके लिए एक नये मार्ग की खोज करना आवश्यक था। जब मनुष्य को मानवीय सहारे की आशा नही रहती तव उसे ईश्वर की शरण मे जाने का मार्ग नजर आता है। फलतः इस काल मे हिन्दुओ ने भगवद-भजन,तथा आत्मचिंतन का मार्ग निकाला तथा इसी में अपनी शक्ति लगा दी।
भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषताएँ

मध्ययुगीन भारत मे भक्ति आंदोलन की निम्नलिखित विशेषताएं थी—
1 भक्ति मार्ग का सरल और आडंबरहीन स्वरूप
इस आंदोलन की सर्वप्रमुख विशेषता इसके स्वरूप का अत्यंत सरल एवं आडम्बरहीन होना था। इस आंदोलन में भगवान के प्रति सच्ची भक्ति और प्रेम पर विशेष बल दिया गया था। परम्परागत अन्धविश्वासो और कर्मकांडो को इसमे कोई स्थान नही दिया गया था। इस विचारधारा द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया था कि भगवान का वास हृदय में होता है, मन्दिर अथवा तीर्थ स्थानों में नही।
2 मूर्ति पूजा पर विशेष बल न देना
इस आंदोलन की दूसरी विशेषता यह थी कि इसमे मूर्ति पूजा पर विशेष जोर नही दिया गया था। अधिकांश भक्त संतो ने मूर्ति पूजा में कोई विशेष रुचि नही दिखाई बल्कि कुछ संतो यथा कबीर एवं विसोबा ने मूर्ति पूजा का विरोध भी किया।
3 एक ईश्वर की उपासना पर बल
एक ईश्वर की उपासना इस आंदोलन की अन्य विशेषता थी। इस विचारधारा के अन्तर्गत विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना के स्थान पर एक ईश्वर की उपासना पर बल दिया गया था।
4 जाति-पाति और वर्ग का विरोध
इस आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी कि इन संतो ने जाति-पाति और वर्ग-भेद का विरोध किया। वे सभी मनुष्य को एक समान मानते थे। उनका विश्वास था कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग का हो सच्चे हृदय से उपासना करने पर उसे ईश्वर अवश्य ही प्राप्त होता है। इस सम्बंध में स्वामी रामानन्द का तो स्पष्ट कहना था कि “जाति-पाति पूछे न ही कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।”
5 हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल
हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल इस आंदोलन की एक अन्य विशेषता थी। भक्ति आंदोलन के संत यथा कबीर ने अपनी ओजपूर्ण शैली में हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को ही अपना शिष्य बनाया। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों में बढ़ती कट्टरता को समाप्त करने के लिए दोनों जातियो की आलोचना करते हुए कहा “अरे इन दोउन राह न पाई, हिन्दुन की हिन्दूआई देखी, तुरकान की तुरकाई।” कबीर के अतिरिक्त गुरुनानक, रैदास, चैतन्य, एवं नामदेव आदि ने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया।
6 गुरु की महत्ता पर बल
भक्ति आंदोलन के संतों का विश्वास था कि गुरु ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखता है। वह भक्त के अज्ञान को मिटाकर उसे ज्ञान का मार्ग दिखता है।
भक्ति आंदोलन इतनी विशेषताओं से युक्त आंदोलन था कि इसने शीघ्र ही लोगो पर अपना प्रभाव छोड़ना प्रारम्भ कर दिया। देखते ही देखते अपार जन समुदाय इस आंदोलन से जुड़ गया। परिणामस्वरूप तत्कालीन समाज पर इसका तत्कालीन प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ।
तत्कालीन भारतीय समाज पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव

भक्ति आंदोलन एक देश व्यापी आंदोलन था। जिसने भारतीय सामाजिक,धार्मिक, सांस्कृतिक सभी प्रकार से लोगो को प्रभवित किया। इसके व्यापक प्रभाव का वर्णन निम्नलिखित संदर्भों में किया जा सकता है—–
1. हिंदू धर्म की बुराइयों का सुधार
भक्ति आंदोलन के संतों ने हिन्दू धर्म की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया। इन संतो के प्रचार के फलस्वरूप हिन्दू धर्म में जाति-पाति, ऊँच-नीच, छुआ-छूत के भेदभाव कम होने लगे। बाहय आडम्बरो और व्यर्थ के रीति-रिवाज ढीले पड़ने लगे। तथा जन साधारण ने शुद्ध कर्मो की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया।
2. हिंदू-मुस्लिम एकता का विकास
भक्ति आंदोलन के संतों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी बल दिया। इस आंदोलन के फलस्वरूप हिन्दू और मुसलमानों ने धार्मिक कट्टरता को भूलाकर एक दूसरे के प्रति प्रेम का व्यवहार करने लगे। इससे हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति में समन्वय के लिए अनुकूल परिस्थितियां बन गयी।
3. समाज में नवीन आशा और शक्ति का संचार
संतो की प्रेममयी वाणी से सौम्यता, समरसता तथा सदभावना का जन्म हुआ। सामाजिक द्वेष और कलह की प्रवृत्ति कम हो गयी।तथा निराश हिन्दू जनता में नवीन शक्ति और साहस का संचार हुआ। पीड़ित, शोषित और दुःखी हिन्दू समाज के लिये भक्ति आंदोलन बड़ा ही उपयोगी सिद्ध हुआ। इसके परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म अपनी रक्षा करने हेतु समर्थ हो गया।
4 सामाजिक समानता एवं भातृत्व का प्रचार
भक्ति आंदोलन ने जाति-पाति, ऊँच-नीच, छुआ-छूत जैसी कुरीतियों का जमकर विरोध किया। भक्ति संतो ने निम्न वर्ग के लोगो के लिए भी भक्ति के द्वार खोल दिये। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप शूद्र और निम्न जाति में आत्मसम्मान और भातृत्व एवं समानता की भावना उत्पन्न हुई।
5. नैतिक जीवन एवं सद्गुणों का प्रचार
भक्ति संतो ने शुभ कर्मों एवं सद्गुणों के विकास पर भी बल दिया। उन्होंने कहा कि वही व्यक्ति पूर्ण भक्ति भावना का विकास कर सकता है, जो सांसारिक लोभ,मोह,काम,क्रोध,एवं अहंकार का परित्याग कर सके। अतः ईश्वर को पाने और अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए मन, वचन,कर्म, वाणी की पवित्रता आवश्यक है।
6 राजनीतिक प्रभाव
भक्ति आंदोलन के संतों की शिक्षाओं ने अनेक शासको को प्रभावित किया। इस आंदोलन ने धार्मिक सहिष्णुता की भूमिका तैयार की। मुगल सम्राट अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता को अपने शासन की नीति के रूप में स्वीकार किया तथा हिन्दू- मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने में अपना तन-मन-धन लगा दिया।
7 क्षेत्रीय भाषओं का विकास
मध्यकालीन भारत मे अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के विकास का श्रेय भक्ति आंदोलन का ही है। रामानंद, कबीर,सूरदास,दादू,बल्लभाचार्य, आदि संतो ने हिंदी भाषा में अपनी रचनाओं को लिखा। सूरदास ने ब्रज भाषा मे, तुलसीदास ने अवधि में, गुरुनानक ने गुरुमुखी और पंजाबी भाषाओं को विकसित किया। नामदेव, ज्ञानेश्वर, ने मराठी, चैतन्य महाप्रभु और चंडीदास ने बंगाली भाषा की साहित्यिक उन्नति में योगदान दिया।
निष्कर्ष
इस प्रकार उपरोक्त अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भक्ति आंदोलन अनेक विशेषताओं से युक्त एक जन आंदोलन था। इस आंदोलन से मध्यकाल में एक नवीन जागृति आई। इसके कारण विभिन्न धर्मों में सहिष्णुता का विकास हुआ। इस आंदोलन ने बलात होने वाले धर्म परिवर्तनो को रोक दिया। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भक्ति आंदोलन की विशेषताओं ने तत्कालीन समाज पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ा। जिससे समाज के उत्थान के लिए एक नवीन दिशा मिली। डॉ ए0 एल0 श्रीवास्तव के अनुसार “भक्ति आंदोलन बौद्ध धर्म के पतन के उपरान्त एक लोकप्रिय आंदोलन था, जिसने हिन्दू -मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने में योगदान दिया।”
FAQ / PAQ (People Also Ask)/ अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
1. भक्ति आंदोलन कब और कहाँ प्रारंभ हुआ?
उत्तर: भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में लगभग 7वीं शताब्दी के आसपास नयनार और अलवार संतों के प्रयासों से हुई। बाद में यह आंदोलन 13वीं से 16वीं शताब्दी के दौरान उत्तर भारत में व्यापक रूप से फैल गया।
2. भक्ति आंदोलन का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर: इस आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य ईश्वर के प्रति सच्ची और निष्कपट भक्ति को बढ़ावा देना था। इसके साथ ही यह धार्मिक समानता, मानवता की भावना, जातिगत भेदभाव का विरोध तथा हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित करने पर केंद्रित था।
3. भक्ति आंदोलन का सबसे बड़ा सामाजिक प्रभाव क्या था?
उत्तर: भक्ति आंदोलन ने समाज में जाति-आधारित ऊँच-नीच की धारणा को कमजोर किया। इससे निचले तबकों में आत्मसम्मान और समानता की भावना मजबूत हुई, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक एकता को बढ़ावा मिला।
4. भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत कौन-कौन थे?
उत्तर: कबीर, गुरु नानक, रामानंद, तुलसीदास, सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, ज्ञानेश्वर और बल्लभाचार्य जैसे संत इस आंदोलन की प्रमुख हस्तियों में शामिल थे, जिन्होंने अपने उपदेशों और रचनाओं से इसे दिशा दी।
5. भक्ति आंदोलन ने भारतीय संस्कृति को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर: इस आंदोलन ने विभिन्न भारतीय भाषाओं—जैसे हिंदी, ब्रज, अवधी, पंजाबी, बंगाली और मराठी—के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। साथ ही इसने प्रेम, सहिष्णुता और सद्भाव जैसी मूल्यों पर आधारित साझा सांस्कृतिक परंपरा को मजबूत किया।
