“टिप्पणी: इस पेज पर नीचे भाषा बदलने का बटन मौजूद है। उस पर क्लिक करके आप इस आर्टिकल को अपनी पसंद की भाषा (20 भाषाओं) में पढ़ सकते हैं। |
Tip: The Language Switcher button is available at the bottom of this page. Click on it to read this article in your preferred language (20 languages).”
गुप्त काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। इस युग में धर्म, साहित्य, विज्ञान, और कला ने असाधारण ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं। विद्वानों, कलाकारों और वैज्ञानिकों के प्रयासों से भारत सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध हुआ। नीचे दिया गया चित्र इस गौरवशाली युग की सांस्कृतिक झलक प्रस्तुत करता है।

परिचय
भारतीय इतिहास में गुप्त वंश का शासन अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता हैं।गुप्तो ने अपनी सैनिक क्षमता एवं कूटनीति के बल पर एक विशाल साम्राज्य स्थापित करके उसमें राजनीतिक एकता और सुदृढ़ शासन व्यवस्था की स्थापना किया। इसी सुदृढ़ शासन व्यवस्था एवं राजनीतिक एकता का परिणाम था कि गुप्तकाल में धर्म, कला, साहित्य, और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अदभुद प्रगति हुई। इसिलिये अनेक विद्वानों ने गुप्तकाल को ‘हिन्दू-पुनर्जागरण’ या ‘स्वर्ण युग‘ का काल माना है।
गुप्तो शासको के अधीन विभिन्न क्षेत्रों में हुई प्रगति को हम निम्नलिखित संदर्भो के अंतर्गत अभिव्यक्त कर सकते है—
धर्म और धार्मिक सहिष्णुता
सामान्यतः विश्वास किया जाता है कि गुप्त सम्राट विष्णु के उपासक थे क्योंकि गुप्त सम्राट अपने आपको “परमभागवत” कहते थे, तथा अपने सिक्को पर गरुण, शंक, चक्र, गदा तथा लक्ष्मी की आकृतियां खुदवाई। विष्णु और नारायण की मूर्तियाँ, गरुण ध्वज और मंदिर, इस काल की देन है। विष्णु को अनेक अवतारों के रूप में चित्रित किया गया है। गुप्त कालीन एक अभिलेख (गंगधर अभिलेख) में विष्णु को मधुसूधन कहा गया है। स्कन्दगुप्त का ‘जूनागढ़ अभिलेख‘ विष्णु की स्तुति से प्रारम्भ होता है। इन सभी तथ्यो से स्पष्ट होता है कि गुप्त शासक विष्णु के अनुयायी थे। इस समय वैष्णव धर्म का प्रचार समस्त भारत के अतिरिक्त दक्षिणी-पूर्वी एशिया, हिन्दचीन, कम्बोडिया, मलाया और इन्डोनेशिया तक हुआ।
गुप्तकाल में वैष्णव धर्म के अतिरिक्त शिव, सूर्य उपासना, नाग, यक्ष, दुर्गा, गंगा-यमुना आदि की भी उपासना की जाती थी, क्योकि गुप्तकालीन प्रजा को अपनी इच्छानुसार धर्म-आचरण की अनुमति थी। लेकिन उत्तर-भारत मे वैष्णव धर्म अधिक लोकप्रिय था। मंदिर उस समय उपासना के केंद्र थे। इस युग के अनेक मन्दिर आज भी विद्यमान है। हिन्दू देवी-देवताओं के अतिरिक्त बौद्ध तथा जैन धर्म को मानने वाले लोगो को संख्या भी बहुत अधिक थी।
इसिलिये गुप्त समाज मे न तो वैष्णव धर्म था और न ही शिव धर्म बल्कि उस काल मे विभिन्न धर्मों में विश्वास किया जाता था। इस काल मे अनेक विदेशियो ने हिन्दू धर्म को अपना लिया था। जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि दक्षिणी-पूर्वी एशिया के विभिन्न द्वीपों (देशो) में हिन्दू धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हो चुका था।
साहित्य और विद्या का उत्कर्ष

गुप्त काल मे साहित्य के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व विकास देखने को मिलता है। इस समय संस्कृत भाषा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी, यही नही वल्कि यह भाषा राजभाषा के पद पर आसीन हुई। मुद्राओ एवं अभिलेखों में इस भाषा का व्यवहार होने लगा। कालिदास इस समय संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे। गुप्त शासक स्वयं संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रेमी थे। उन्होंने योग्य कवियों, साहित्यकारों एवं लेखकों को संरक्षण प्रदान किया। प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त को “कविराज” कहती है। हरिषेण सम्राट समुद्रगुप्त का सेनापति एवं विदेश सचिव था, उसकी सुप्रसिद्ध कृति ‘प्रयाग प्रशस्ति‘ है। इसका आधा भाग गद्य तथा आधा भाग पद्य में है। इस प्रकार यह चम्पू काव्य का सुन्दर उदाहरण है। वीरसेन, चन्द्रगुप्त द्वितीय का युद्ध सचिव था, उसकी रचना ‘उदयगिरि गुहालेख‘ है। इसी प्रकार वत्सभट्टी, कुमारगुप्त प्रथम का दरबारी कवि था, जो संस्कृत का प्रकाण्ड पंडित था, जिसने ‘मन्दसौर प्रशस्ति‘ की रचना की। कालिदास को इस युग का शेक्सपियर कहा जाता है। उन्होंने ऋतुसंहार, मेघदूत, कुमारसंभव, रघुवंश जैसे काव्यो की रचना की तथा अभिज्ञानशकुन्तलम उनकी सर्वोत्कृष्ट कृति मानी जाती है। कालिदास के अतिरिक्त गुप्तकालीन कुछ अन्य साहित्यिक विभूतियां है- भरावि, शूद्रक, विशाखदत्त। भरावि ने 18-सर्गो का ‘किरातार्जुनीय’ महाकाव्य लिखा, शूद्रक ने ‘मृच्छकटिकम’ नाटक लिखा, विशाखदत्त इस काल के प्रसिद्ध नाटककार हुए। जिन्होंने ‘मुद्राराक्षक’ एवं ‘देवीचंद्रगुप्तम‘ नामक नाटकों की रचना की। पुराणों एवं स्मृतियों की रचना भी इसी काल मे की गई। महाभारत एवं रामायण का भी अन्तिम संकलन इसी काल में हुआ। विष्णु शर्मा ने ‘पंचतंत्र’, कामन्दक ने ‘नीतिसार’, भास ने :वासवदत्ता’, वात्सयायन का ‘कामसूत्र’ आदि इसी काल की रचनाएं है। इसके अतिरिक्त गुप्त काल मे अनेक जैन तथा बौद्ध विद्वान उत्पन्न हुए जिन्होंने अपनी कृतियों से साहित्य को सजाया।
Must Read It: गुप्तकालीन सामाजिक एवं आर्थिक जीवन/Gupta Period Social and Economic Life in Hindi
विज्ञान और तकनीकी प्रगति
गुप्त काल मे विज्ञान एवं तकनीक की अनेक शाखाओं के विकास हुआ। अंकगणित, ज्योतिष, रसायन विज्ञान, धातु विज्ञान आदि का सम्यक विकास हुआ। इस समय के प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट थे जिनकी कृति आर्यभटीय है। प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर गुप्त युग के अन्यतम विभूति थे। उन्होंने पंचसिद्धान्तिका, बृहत्संहिता, बृहज्जातक एवं लघुजातक की रचना की। नागार्जुन, रसायन और धातु विज्ञान के विख्यात ज्ञाता थे, जिन्होंने ‘रसचिकित्सा’ का अविष्कार किया। आयुर्वेद के सबसे प्रसिद्ध विद्वान धन्वंतरि थे, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के दरबारी थे। गुप्तकालीन धातु कला का सबसे बढ़िया नमूना महरौली का लौह-स्तम्भ एवं सुल्तान गंज से प्राप्त ताम्र-निर्मित बुद्ध की भव्य प्रतिमा है। गुप्तकालीन सिक्के एवं मुहरे भी तकनीक उपलब्धियों की साक्षी है।
कला, स्थापत्य और मूर्तिकला

गुप्त काल मे स्थापत्य, मूर्तिकला एवं चित्रकला के अतिरिक्त अन्य विविध कलाओं के क्षेत्र में गुप्त युग की उपलब्धियां भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। वस्तुतः कला इस समय मुख्यतः धर्म से प्रभावित थी। स्थापत्य के क्षेत्र में मंदिरो का निर्माण सबसे महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न देवताओ के लिए भव्य मंदिर बनाये गए। इन मंदिरो में तकनीकी एवं निर्माण संबंधी अनेक विशेषताएं देखी जा सकती है। इन विशेषताओं को देवगढ़ का दशावतार मन्दिर (झांसी) प्रदर्शित करता है। प्रारम्भिक काल के गुप्तकालीन मन्दिर सपाट छतो के और बाद के मंदिर शिखरयुक्त है। मंदिर के चारो ओर परिक्रमा करने के लिए प्रदक्षिणा-मार्ग बनाया जाता था। तथा केंद्र में गर्भगृह का निर्माण करके उनमे मूर्तियों को स्थापित किया जाता था। मंदिरो का निर्माण चबूतरों पर किया गया है। मुख्यतः दरबाजो पर गंगा-यमुना की आकृतियों को उकेरा गया है। अनेक जैन मन्दिर भी इस समय मे बने। अनेक स्तूपो, चैत्यों एवं विहारों का भी निर्माण हुआ। सारनाथ का विशाल ‘धम्मेख-स्तूप‘ इसी समय बना। गुप्तकालीन स्थापत्य कला का दूसरा उदाहरण ब्राह्मण और बौद्ध गुहा मंदिरो में मिलता हैं। इस श्रेणी में उदयगिरि का मन्दिर, जिसमे वाराह-अवतार की मूर्ति है तथा बाघ एवं अजंता की गुफाएं महत्वपूर्ण है। बाघ एवं अजंता की गुफाओ में बुद्ध और उनके जीवन से संबंधित घटनाओ को दर्शाया गया है।
इसके अतिरिक्त मूर्ति कला की भी गुप्तकाल की अपनी विशेषता है। मूर्ति पूजा में प्रमुख मूर्तियां विष्णु, शिव की है। विष्णु मूर्तियों का निर्माण उनके अनेक रूपो को अभिव्यक्त करता है। कभी वे अकेले ही संसार के पालनकर्ता के रूप में दिखाये गये है तो कभी क्षीर सागर में ‘लक्ष्मी’ के साथ दिखाकर, कलाकार ने उन्हें सांसारिकता का पर्याय भी बना दिया है। शिव की उपासना लिंग एवं मूर्ति दोनो ही रुपो में कई जाती थी।
इस प्रकार के मन्दिर एवं मूर्ति युगीन वस्तुकला के सर्वोत्तम उदाहरण है– जिसके प्रारंभिक रूप को सांची के मन्दिर और परिपक्व अवस्था के रूप में देवगढ़ के मंदिर में देखा जा सकता है। परन्तु एरण के विष्णु मंदिर के स्तम्भो पर नारी मुख शेर और हाथी को उत्कीर्ण किया गया है। मन्दिर में भीतरगांव का मन्दिर सबसे अलग है। क्योंकि यह पूर्णतः ईंटो से निर्मित है और इसके आलो में दुर्गा एवं आदिवाराह की मिट्टी की मूर्तियों को रखा गया है। इसके अतिरिक्त गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट नमूने अजंता एवं बाघ की गुफाओ से मिले है। उसके अतिरिक्त दीपावली, रामायण, महाभारत की कथा वस्तु को चित्रों के रूप में कलाकार ने बहुत ही अच्छे ढंग से प्रदर्शित किया है, जिन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तकाल में चित्रकला के क्षेत्र में भी विशेष प्रगति हुई। रंगों, रेखाओं के प्रयोग, भावो एवं विषयो के चित्रीकरण अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किये गए है। अन्य विविध कलाओं, संगीत, नृत्य, नाटक, अभियान जैसी ललित कलाओ की भी पर्याप्त प्रगति हुई।
गुप्त कला बनाम मौर्य कला
गुप्तकाल और मौर्यकाल की कलाओ का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के के अन्तर्गत किया जा सकता है—
मन्दिर एवं मूर्ति निर्माण
मन्दिर एवं मूर्ति निर्माण की यह परम्परा मौर्यकाल में नही थी परन्तु पतञ्जलि के महाभाष्य के अनुसार मौर्यकालीन कलाकार मूर्तियों का निर्माण करते थे। परन्तु लोक कला के रूप में मौर्यकाल से प्राप्त यक्ष एवं यक्षिणी की प्रतिमाएँ आवश्य देखी जा सकती है और इसमें पूर्णतया नग्नता तथा यक्ष का यक्षिणी और यक्षिणी का यक्ष को काम उद्दीपक नजरो के दिखाने में कलाकार सफल हुआ। लेकिन गुप्तकाल में मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया में गम्भीरता एवं सौम्य को प्रदर्शित किया गया है।
स्तूप-निर्माण
गुप्त काल मे भी स्तूपो का निर्माण अवाध गति से चलता रहा। इस काल के स्तूप क्रमशः धमेख स्तूप (सारनाथ) तथा राजगृह स्थित ‘जरासंघ की बैठक’ का निर्माण गुप्तकाल में ही हुआ था। जिसमे ‘धमेख स्तूप’ पूर्णतः धरातल से ही निर्मित है और इसके निर्माण में ईंटो का प्रयोग हुआ है। परन्तु मौर्यकालीन स्तूप गुप्तों की तुलना में अत्यधिक विकसित है और इनकी संख्या भी अनेक है। मौर्यकालीन स्तूपो का निर्माण मुख्यतः पत्थर से किया गया है और ये स्तूप अपने सर्वोच्च बिन्दू बुद्ध की विजय के रूप में पताके को समर्पित करते है।
गुहा (गुफा) निर्माण
गुप्तकाल एवं मौयकाल दोनो में ही गुफा के निर्माण हुआ था। परन्तु गुफा निर्माण की प्रक्रिया मौर्यो के निर्माण की देंन हैं। इसलिए यहां निर्मित गुफाएं अपनी शैशव अवस्था का प्रतीक है। परन्तु इनके अन्तरंग में की गई चमकदार पॉलिश आधुनिक दृष्टिकोण के लिए भी कौतूहल का विषय है। परन्तु गुप्तो के काल मे निर्मित गुफाएँ अपने निर्माण के यौवन को प्रतिबिम्बित करती है।
जहाँ एक तरफ मौर्य कला साम्प्रदायिक है वही दूसरी तरफ गुप्त कालीन कला धर्म निरपेक्ष, धार्मिक एवं लौकिक जीवन से ओत-प्रोत है। जिसे हम अजंता एवं एलोरा की गुफाओ में देख सकते है। गुप्त काल मे ब्राह्मणमतालम्बी वीरसेन के द्वारा उदयगिरि गुहा लेख और उनका लेख ब्राह्मण धर्म को समर्पित था। इस प्रकार मौर्य युगीन जहॉं संकीर्णता का प्रतीक है वही गुप्तकालीन कला व्यापकता का प्रतीक है।
स्तम्भो का निर्माण
मौर्यकाल एवं गुप्तकाल दोनो ही जगह पर स्तम्भो का निर्माण किया गया है। दोनो ने ही स्तम्भो के निर्माण का उद्देश्य अपनी आने वाली पीढ़ियों को प्रजाहित की भावनाओ को संदेशित करता था परन्तु मौर्य काल में स्तम्भो का निर्माण एक ही पत्थर से किया गया है और चुनार के स्तम्भ का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से किया गया है। ये स्तम्भ ऊपर से नीचे पतले होते चले गए है। मौर्यो के इस स्तम्भ पर बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पशुओं- हाथी, घोड़ा, बैल और शेर को उकेरा गया है इन स्तम्भो में सारनाथ का स्तम्भ प्रमुख है। इस स्तम्भ में ‘सिंह’ के ऊपर चक्र का निर्माण करके एक तरफ विकास और दूसरी तरफ शक्ति के ऊपर ज्ञान की विजय सांकेतिक स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। जबकि गुप्तो के काल मे निर्मित स्तम्भो में प्राप्ति स्थल के आधार पर पत्थरो का प्रयोग किया गया है और उसमे पशु के रूप में किसी मानवीय चेतना को संदेश देने की कोशिश नही की गईं है। गुप्त कालीन स्तम्भो में प्रयाग प्रशस्ति भी मौर्यकालीन स्तम्भो के समान है। यही कारण है यह एकाश्मक पत्थर से निर्मित है। इसके द्वारा समुद्रगुप्त की विजयो का काव्यात्मक वर्णन किया गया और इस रूप में आने वाली पीढ़ियों को समुद्रगुप्त के राजकवि हरिषेण ने दिग्विजय का संदेश दिया था जबकि मौर्यकालीन स्तम्भो में शक्ति के आधार पर की जाने वाली दिग्विजय को छोड़कर धम्म विजय को प्रदर्शित किया गया है।
स्थापत्य निर्माण
स्थापत्य निर्माण में मौर्य काल मे पहली बार अशोक द्वारा पत्थरो का निर्माण किया गया है जबकि उनके राजप्रासाद में पत्थरो के स्थान पर ईंटो तथा बांस एवं बल्लियों का प्रयोग हुआ जबकि गुप्तो के काल मे ईंट तथा पत्थर सामान्यतः प्रयोग किये जाने लगे थे।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गुप्तकाल में सभ्यता एवं संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई और हिन्दू संस्कृति अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गई थी। इस प्रकार हम कह सकते है कि इस युग का भारतीय इतिहास में अद्वितीय स्थान है तथा इसकी सक्षमता में कोई अन्य युग नही आ सकता। गुप्तो से पूर्व यद्यपि मौर्य साम्राज्य अत्यंत विस्तृत था फिर भी इस काल मे धर्म, कला, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान आदि के क्षेत्र में यह चहुमुखी समृद्धि देखने को नही मिलती है, जिसका साक्षात्कार हम गुप्त युग मे करते है। धर्म, कला, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान आदि के क्षेत्रो में इस समय देश उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया तथा उन परम्पराओ का निर्माण हुआ जो आगामी शताब्दियों के लिए आदर्श बन गई। इसी कारण आज का भारतीय गर्व करता है।
FAQ / People Also Ask
प्रश्न 1. गुप्त काल को भारत का स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है?
उत्तर: गुप्त काल को भारत के इतिहास का स्वर्ण युग इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस युग में विज्ञान, गणित, साहित्य, कला और धर्म जैसे क्षेत्रों में अद्वितीय प्रगति हुई। शासन की स्थिरता, आर्थिक समृद्धि और धार्मिक सहिष्णुता ने समाज में रचनात्मकता को प्रोत्साहित किया। इस समय भारत ज्ञान, संस्कृति और शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया था।
प्रश्न 2. गुप्त काल में कौन-कौन से प्रमुख साहित्यकार हुए?
उत्तर: गुप्त काल में अनेक प्रतिभाशाली साहित्यकारों ने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। इनमें कालिदास सबसे प्रमुख थे, जिनकी रचनाएँ अभिज्ञानशाकुंतलम और मेघदूत भारतीय नाट्य और काव्य परंपरा की अमूल्य धरोहर हैं। हरिषेण ने प्रयाग प्रशस्ति की रचना की, जबकि भास और विशाखदत्त ने नाट्य साहित्य में योगदान दिया। इसी काल में आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे विद्वानों ने गणित और खगोल विज्ञान में उल्लेखनीय कार्य किए।
प्रश्न 3. गुप्त काल की कला की क्या विशेषताएँ थीं?
उत्तर: गुप्त काल की कला में कोमलता, भावनात्मकता और आध्यात्मिकता का संतुलित संयोजन देखने को मिलता है। मूर्तियों और चित्रों में मानवीय भावनाओं का सूक्ष्म और आदर्शीकृत चित्रण किया गया। देवगढ़ के दशावतार मंदिर, उदयगिरि की गुफाएँ तथा अजंता की भित्तिचित्रकला इस युग की कलात्मक उत्कृष्टता को दर्शाती हैं। इस काल की कला भारतीय सौंदर्यबोध की पराकाष्ठा मानी जाती है।
प्रश्न 4. गुप्त काल के प्रमुख वैज्ञानिक कौन थे और उनके योगदान क्या थे?
उत्तर: गुप्त काल में विज्ञान और गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट और वराहमिहिर का विशेष स्थान है। आर्यभट्ट ने ‘आर्यभटीय’ नामक ग्रंथ में पृथ्वी की गोलाकारता, ग्रहों की गति तथा शून्य और π जैसी अवधारणाओं पर प्रकाश डाला। वराहमिहिर ने पंचसिद्धान्तिका और बृहत्संहिता जैसी रचनाओं के माध्यम से ज्योतिष और खगोल विज्ञान को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। इन दोनों विद्वानों के कार्यों ने विश्व वैज्ञानिक परंपरा को भी प्रभावित किया।
प्रश्न 5. गुप्त कला और मौर्य कला में क्या अंतर था?
उत्तर: मौर्य काल की कला अपने यथार्थवाद, शक्ति और भव्यता के लिए जानी जाती थी — जैसे अशोक के चमकदार स्तंभ और सिंह शीर्ष। इसके विपरीत, गुप्त काल की कला अधिक कोमल, भावनात्मक और धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत थी। मौर्य कला राजनीतिक शक्ति की अभिव्यक्ति थी, जबकि गुप्त कला में भक्ति, सौंदर्य और आध्यात्मिकता का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।
