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मुगल सम्राट हुमायूँ का जीवन उतार–चढ़ाव और संघर्षों से भरी एक रोमांचक यात्रा जैसा था। सत्ता संभालने के तुरंत बाद ही उसे भाइयों की प्रतिस्पर्धा, अफ़गानों के विद्रोह और शेरशाह सूरी जैसी मज़बूत ताक़तों से जूझना पड़ा। कई बार पराजय का सामना करने के बावजूद हुमायूँ ने हार नहीं मानी। कठिन परिस्थितियों में निर्वासन झेलते हुए भी उसने लगातार अपने साम्राज्य को फिर से प्राप्त करने के प्रयास जारी रखे। अंततः उसकी दृढ़ता रंग लाई और उसने भारत में मुगल शासन को दोबारा स्थापित कर दिया। संघर्षों से भरा यही सफ़र हुमायूँ को इतिहास में एक विशिष्ट और प्रेरक स्थान देता है।

परिचय
सन 1530 ई0 में बाबर की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ 30 दिसम्बर 1530 ई0 को सिंहासन पर बैठा था। मुंगलो के लिए यह संकट का समय था। पूर्व में अफगान शेरशाह के नेतृत्व में पुनर्गठित हो रहे थे और उनकी सल्तनत प्राप्त करने की आकांक्षा बढ़ रही थी। दक्षिण में गुजरात का शासक बहादुरशाह अत्यंत महत्वाकांक्षी था। इन संकटो के अतिरिक्त हुमायूँ के समक्ष महत्वाकांक्षी मिर्जा और ईर्ष्यालु भाई भी थे, जो उसके लिए संकट पैदा कर रहे थे। 1530 से 1540 ई0 तक हुमायूँ ने बड़े साहस और धैर्य से इन समस्याओं का सामना किया परन्तु 1540 ई0 में शेरशाह से पराजित होने के कारण उसे भारत छोड़ना पड़ा और अपने जीवन के 15 वर्ष उसने विदेश में व्यतीत किये। 1555 ई0 में हुमायूँ ने भारत पर पुनः विजय प्राप्त की और इसके बाद 1556 ई0 में उसकी मृत्यु हो गई।
हुमायूँ को मिली प्रमुख कठिनाइयाँ

यह कथन उचित ही है कि “हुमायूँ ने दिल्ली के राज्य सिंहासन को कांटो की शैय्या के के रूप में पाया।” राज्य सिंहासन पर आरूढ़ होते ही उसको अनेक कठिनाइयो का सामना करना पड़ा।उसके समक्ष निम्नलिखित कठिनाइयां थी—
1 असंगठित साम्राज्य की प्राप्ति
हुमायूँ एक विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। बाबर ने जिस साम्राज्य की स्थापना की थी, उसमे संगठन और प्रशासन की स्थिति अत्यंत दुर्बल थी। क्योंकि बाबर को अपनी विजयो में व्यस्त रहने के कारण नवविजित विशाल साम्राज्य को संगठित करने का अवसर प्राप्त नही हुआ था, जिसके कारण साम्राज्य के अंतर्गत चारो ओर अराजकता के चिन्ह विद्यमान थे। साम्राज्य के अंतर्गत अनेक शक्तिशाली सरदार अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्थापना की ताक में बैठे हुए शुभ अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे।
2 साम्राज्य का भाइयों में बँटवारा
हुमायूँ ने अपने पिता के आदेशानुसार साम्राज्य को अपने भाइयों में बाट दिया। उसने कामरान को काबुल और कंधार, अस्करी को सम्भल और हिन्दाल को अलवर का प्रान्त दिया। हुमायूँ को अपने इन भइयो से भी संघर्ष करना पड़ा। इसमे कामरान हुमायूँ के लिए अत्यधिक खतरनाक सिद्ध हुआ। उसकी दिल्ली सिंहासन की ओर नजर थी। अस्करी और हिन्दाल भी बड़े झगड़ालू, उपद्रवी तथा महत्वाकांक्षी थे। साम्राज्य का इस प्रकार विभाजन हुमायूँ के लिए विपदाओं का कारण बना।
3 अफगानों का पुनरुत्थान
अफगान भी हुमायूँ के लिए शत्रु सिद्ध हुए। बाबर ने अफगानों का दमन अवश्य कर दिया था, परन्तु वह उन्हें पूर्णतः समाप्त नही कर सका था। इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी अफगान शक्ति संगठित करके भारत मे पुनः अफगान राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील था। शेर खां ने हुमायूँ को चौसा तथा कन्नौज के युद्ध मे परास्त कर उसे भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया।
4 संबंधियों का विश्वासघात
हुमायूँ के सबसे प्रबल दुश्मन उसके अपने सगे ही संबंधी निकले। इन संबंधियों में सबसे प्रमुख मुहम्मद जमाल मिर्जा था, जो हुमायूँ की शौतेली बहन मासूमा बेगम का पति था, वह भी दिल्ली पर अपना अधिकार जमाना चाहता था। इसी प्रकार कुछ अन्य सरदार भी हुमायूँ के विरुद्ध षडयंत्रो में व्यस्त थे।
5 रिक्त राजकोष
बाबर ने भारत विजय के समय जो धन प्राप्त किया था, उसका उसने अपव्यय किया। उसने अपने सरदारों तथा सैनिको को प्रसन्न करने के लिए खुले हाथों धन का वितरण किया। परिणामतः राजकोष खाली हो गया। उसने इस बात की ओर तनिक भी ध्यान नही दिया कि आर्थिक स्थिति के सुदृढ़ होने पर ही साम्राज्य का स्थायी रहना निर्भर है। हुमायूँ ने भी रिक्त राजकोष को पूरा करने का प्रयास नही किया बल्कि उसने भी धन का अपव्यय किया जिसका दुःखद परिणाम उसे भोगना पड़ा।
6 हुमायूँ के चरित्र की दुर्बलताएँ
हुमायूँ के चरित्र में अनेक दुर्बलताएँ थी, जिनके कारण वह स्वयं अपना सबसे बड़ा शत्रु था। डॉ0 आशीर्वादी लाल के अनुसार “बौद्धिक योग्यता और साहित्य के प्रति अभिरुचि होते हुए भी उसमे फौजी प्रतिभा और इच्छा शक्ति का अभाव था। साथ ही वह क्रियाशील पुरुष नही था। किसी बात को शीघ्र तय करने और शीघ्र उसे कार्यान्वित करने में भी वह शून्य था।” वास्तव में हुमायूँ बड़ा भाग्यहीन था। वह जीवनपर्यंत ठोकरे खाता रहा और ठोकर खा कर भी नही संभला।
हुमायूँ की असफलता के कारण

जिन परिस्थितियों ने हुमायूँ को अपना पैतृक राज्य छोड़ने के लिए बाध्य किया। उनमे से अधिकांश उसकी अपनी मूर्खता और कमजोरियां थी। निःसंदेह उसका जीवन असफलताओ से भरी हुई एक दुःखद कहानी है। हुमायूँ की असफलताओ के कारणों को निम्नलिखित सन्दर्भो के अंतर्गत वर्णित किया जा सकता है।—-
1 भाइयों व सम्बन्धियों का विश्वासघात
हुमायूँ ने अपने भाइयों और संबंधियों पर विश्वास किया। उसका सबसे प्रबल दुश्मन उसका ही भाई कामरान था, जो अंत तक उसे धोखा देता रहा, और हुमायूँ सदा उसे क्षमा करता रहा। कामरान के अंतिम बार बन्दी बनाये जाने पर जब उसके सरदारों ने उससे उसका वध करने के लिए निवेदन किया तो उसने कहा “मेरी बुद्धि तो तुम्हारी बात मानती है लेकिन मेरा दिल नही मानता।” और उसने उसका वध करने से मना कर दिया। उसके संबंधी मिर्जाओं ने भी विद्रोह किया और उन्होंने गुजरात के शासक बहादुशाह के यहां शरण ली और उसको दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया।
2 बहादुरशाह और शेरशाह को बढ़ने देना
हुमायूँ इस बात से अनभिज्ञ था कि बहादुरशाह और शेर खां में ऐसा गठबंधन हो चुका है कि यदि हुमायूँ एक के विरूद्ध सेना लेकर अभियान करता है तो दूसरा उसका ध्यान बटाने के लिए विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देगा। चुनार के आक्रमण के समय शेर खां से सन्धि कर लेना और रानी कर्णवती को समय पर सहायता न देना उसकी कमजोरियों के स्पष्ट प्रतीक है। उसने किसी ओर भी पूर्ण शक्ति का प्रयोग नही किया और न ही उनका दमन ही कर सका तथा दोनों की शक्ति बढ़ने का मौका दिया, जो उसकी सबसे बड़ी भूल थी।
3 अपव्यय और विलासिता
एक ओर हुमायूँ का राजकोष खाली था, फिर भी वह धन लूटाने से वाज नही आया। उसका जीवन अत्यंत विलासी था, छोटी सी विजय के बाद वह उत्सवों में पैसा बहता था। कालिंजर की विजय के पश्चात उसने दिल खोलकर धन लुटाया। चुनार से लौटते समय वह ग्वालियर में दो माह तक खुशियाँ मानता रहा।
4 भूलों की पुनरावृत्ति
अपने भाई कामरान द्वारा लगातार विश्वासघात किये जाने पर भी वह उसे क्षमा करता रहा। चौसा के युद्ध मे शेरशाह से धोका खाने के बाद वह कन्नौज के युद्ध मे बहुत भारी भूल कर बैठा। सैनिक शिविर स्थापित करने के लिए नीचा स्थान पसंद किया और एक महीने तक अकर्मण्य बने रहना, शिविर को दूसरे स्थान पर हटाते समय अच्छा प्रबंध न करना, तोप गोलो के दल को पीछे छोड़ देना और भयभीत होकर भागते हुए सैनिकों की रोकथाम न करना आदि बाते उसकी असफलता, पराजय और और अन्त में भारत से भागने के लिए उत्तरदायी है।
5 समय का दुरुपयोग
हुमायूँ की असफलता का एक मुख्य कारण यह भी था कि उसने समय का कभी उचित उपयोग नही किया बल्कि महत्वपूर्ण समय मे आमोद-प्रमोद में लीन रहा। गुजरात और गौढ़ में उसने यही किया। इसी प्रकार उसने चुनारगढ़ विजय में 6-7 माह व्यर्थ नष्ट किये। यही समय वह शेरशाह का पूर्ण दमन करने में इस्तेमाल कर सकता था। डॉ0 आशीर्वादी लाल ने ठीक ही लिखा है “क्या किसी ऐसे शासक की कल्पना की जा सकती है जो पूरे आठ महीने तक अपनी राजधानी से कोई समाचार न प्राप्त कर सके और सोचता यही रहे कि वहाँ सब ठीक है।”
6 स्वयं उत्तरदायी
हुमायूँ में डटकर कार्य करने की क्षमता नही थी। जब कभी उसे युद्ध मे सफलता मिलती थी तो वह प्रसन्नता से अपने आप को भूल कर आमोद-प्रमोद में समय व्यतीत करने लगता था, गुजरात और गौढ़ में उसने यही किया। हैवल ने लिखा है “वह अंधविश्वासी था और ज्योतिषयो के परामर्श के अनुसार कार्य करता था, परन्तु फिर भी नक्षत्र सदैव उसके विपरीत ही रहे।”
उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट हो जाता है कि विविध प्रकार की कठिनाइयों और कमजोरियों के कारण हुमायूँ असफल रहा। यह अभागा बादशाह जीवनपर्यन्त ठोकरे खाता रहा और ठोकर खाकर ही उसकी मृत्यु हो गयी।
हुमायूँ के चरित्र का आलोचनात्मक मूल्यांकन
हुमायूँ का शाब्दिक अर्थ होता है “भाग्यशाली” किन्तु उस जैसा अभागा बादशाह दिल्ली के सिंहासन पर सम्भवतः बैठा ही नही, उसमे अनेक गुण विद्यमान थे। किन्तु उसके चरित्र की अनेक दुर्बलताएँ उसके गुणों को ढक देती है। उसके चरित्र का निम्न शीर्षकों के अंतर्गत वर्णन किया जा सकता है—–
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1. व्यक्ति के रूप में
हुमायूँ का व्यक्तित्व दुःखद होते हुए भी आकर्षक और प्रभवशाली था। उसकी उदारता, सहृदयता तथा मानवीयता प्रभावित करती है। वह अपने पिता की भांति सुसंस्कृत और शिक्षित था। तुर्की और फ़ारसी भाषा के अतिरिक्त उसे गणित, भूगोल, ज्योतिष, मुस्लिम धर्मशास्त्र आदि में भी रुचि थी। वह आज्ञाकारी पुत्र, स्नेही संबंधी और प्रेम पति एवं पिता था। वह अपने सैनिकों और सरदारों के प्रति उदार था। उनकी सफलताओ और असफलताओ में भाग लेता था। सभी के प्रति उसका व्यवहार बहुत मीठा और सुसंस्कृत था।
2. धार्मिक नीति
धर्म मे उसकी पूर्ण आस्था थी, परन्तु वह धर्मान्ध न था। अपने राजनीतिक उद्देश्यो की पूर्ति के लिए उसने ईरान के शिया शासक से सन्धि की तथा शिया धर्म को मनाने और फैलाने की शर्त को स्वीकार कर लिया। उसकी पत्नी हमीदा बानो बेगम तथा उसका मुख्य सलाहकार और समर्थक बैरम खां शिया थे। निःसंदेह युद्ध के अवसर पर उसने हिन्दू मन्दिरो को नष्ट किया, परन्तु हिन्दुओ के प्रति उसकी नीति कटु नही कही जा सकती।
3. शासक के रूप में
मध्यकालीन शासको में हुमायूँ को एक सुयोग्य शासक भी नही मना जा सकता। उसमे अपने पिता के समान ही रचनात्मक कार्यो के करने की क्षमता एवं प्रतिभा का अभाव था। उसने एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास नही किया और न उस समय की जनता की नैतिक, सामाजिक, और आर्थिक स्थिति में ही कोई सुधार किया। कुछ विद्वानों का मत है समयाभाव के कारण वह कोई अच्छी शासन व्यवस्था स्थापित नही कर सका परन्तु यह मत सत्य से बहुत दूर है। शेरशाह ने तो केवल पांच वर्ष में ही एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली की स्थापना की थी जबकि हुमायूँ ने निर्वासित होने से पूर्व दस वर्षों तक शासन किया। सत्य तो यह है कि एक सुव्यवस्थित (सुसंगठित) शासन व्यवस्था स्थापित करने में उसमे योग्यता नही थी।
4. उदारता
अगर देखा जाय तो उदारता चरित्र का एक महान गुण है, परन्तु हुमायूँ जिन परिस्थितियों में था उनमे उदारता उसके लिए घातक थी। उसमें उदार होने का असामायिक गुण था और यही उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता थी, जिसके कारण उसके शासन काल मे पराजयों, विद्रोहो तथा अराजकता का बोलबाला रहा। प्रशासन का मुख्य आधार भय ही होता है। प्रो0 एस0 आर0 शर्मा का यह कथन उचित है कि “ऐसी दुर्बल नीव पर साम्राज्य नही टिक सकता था।” इसिलिए अफगानों को अपनी शक्ति स्थापित करने का अवसर मिल गया। भग्य ने अन्तिम चरण में हुमायूँ का साथ दिया और वह हिन्दुस्तान का राज्य पुनः प्राप्त करने में सफल हुआ। और उसका पुत्र अकबर हिंदुस्तान का महान सम्राट बना। उसका चरित्र, सहानुभूति तथा दया को जाग्रत करता है। उसने जीवन भर दुर्भाग्य की ठोकरे खायी और लेनपूल के अनुसार ठोकर खाकर मार गया।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि हुमायूँ को कठिनाइयां विरासत में मिली थी, जिनका उसने दृढ़ साहस एवं निरंतर प्रयासो के द्वारा सामना किया। अपनी उदारता एवं सहनशीलता के कारण उसे अनेक परेशानियों का भी सामना करना पड़ा। इस कारण हुमायूँ का चरित्र, उसकी अच्छाईयां, उसकी सफलताए और असफलताएं सभी कुछ मिलाकर हुमायूँ के प्रति सहानुभूति का एक दृष्टिकोण बनाती है और इसी कारण इतिहासकार उसे “भाग्यहीन” हुमायूँ पुकारते हैं।
FAQs — हुमायूँ से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न
Q1. हुमायूँ की सबसे बड़ी कठिनाइयाँ क्या थीं?
उत्तर: सत्ता में आने के तुरंत बाद हुमायूँ को कई मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ा। सूबों में उठते विद्रोह, ख़ज़ाने की कमजोर स्थिति, और भाइयों की महत्वाकांक्षा ने उसकी स्थिति को और जटिल बना दिया। इन चुनौतियों के बीच शेरशाह सूरी का तेज़ी से बढ़ता प्रभाव उसके लिए सबसे कठिन बाधा साबित हुआ।
Q2. शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को कैसे पराजित किया?
उत्तर: शेरशाह सूरी अपनी तेज़ रणनीतिक समझ और संगठित अफ़गान समर्थन के लिए जाना जाता था। चौसा (1539) और कन्नौज (1540) की लड़ाइयों में उसने त्वरित निर्णय और प्रभावी युद्धकौशल का प्रयोग किया, जिसके कारण हुमायूँ की सेना टिक नहीं सकी और उसे हार स्वीकार करनी पड़ी।
Q3. हुमायूँ की असफलता के मुख्य कारण क्या थे?
उत्तर: हुमायूँ की निर्णायक क्षणों में झिझक, सेना की संगठनात्मक कमज़ोरियाँ, भाइयों का उचित सहयोग न मिलना और शेरशाह की उत्कृष्ट सैन्य रणनीतियाँ—ये सभी कारण उसकी पराजयों के मूल में रहे।
Q4. हुमायूँ भारत से निर्वासन में क्यों गया?
उत्तर: कन्नौज की निर्णायक हार के बाद मुगल शासन बिखर गया और हुमायूँ के सामने सुरक्षित ठिकाने की तलाश अनिवार्य हो गई। इसी कारण वह ईरान पहुँचा, जहाँ शाह तहमास ने उसे सुरक्षा ही नहीं, बल्कि सैन्य सहायता भी दी।
Q5. हुमायूँ की भारत में वापसी कैसे हुई?
उत्तर: ईरान से मिली सहायता और अपनी नई तैयारियों के साथ हुमायूँ ने पुनः अभियान चलाया। 1555 में वह दिल्ली और आगरा दोनों को वापस अपने नियंत्रण में लाने में सफल हुआ, जिससे मुगल सत्ता की पुनर्स्थापना हुई, जिसे बाद में अकबर ने स्थिर और शक्तिशाली बनाया।
Q6. इतिहास में हुमायूँ को कैसे याद किया जाता है?
उत्तर: इतिहास हुमायूँ को एक उदार, संवेदनशील लेकिन राजनीतिक रूप से अस्थिर शासक के रूप में याद करता है। कठिन परिस्थितियों में उसकी सहनशीलता और निर्वासन के बाद साम्राज्य को पुनर्गठित करने की क्षमता उसे एक विशिष्ट ऐतिहासिक व्यक्तित्व बनाती है।
