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समुद्रगुप्त (335–380 ई.) गुप्त वंश का सर्वाधिक प्रतिभाशाली शासक था। वह केवल एक महान विजेता ही नहीं, बल्कि दूरदर्शी राजनीतिज्ञ, कला-संरक्षक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रवर्तक भी था। यद्यपि गुप्त साम्राज्य की नींव चन्द्रगुप्त प्रथम ने रखी, परंतु उसके विस्तार और सुदृढ़ीकरण का श्रेय समुद्रगुप्त को जाता है। प्रयाग प्रशस्ति (हरिषेण रचित) से उसके सैन्य अभियानों और नीतियों की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

परिचय: समुद्रगुप्त का युग और ऐतिहासिक महत्व
समुद्रगुप्त का शासन भारतीय इतिहास में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। वह एक कुशल योद्धा, सफल सेनापति, महान संगठनकर्ता, काव्य प्रेमी, कला एवं संस्कृति का उन्नायक था। अगर देखा जाय तो गुप्त साम्राज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त प्रथम ने की थी लेकिन उसके विस्तार कार्य को समुद्रगुप्त ने पूरा किया। उसका शासनकाल सैनिक विजयो से भरा पड़ा है। उसका आदर्श सैनिक अभियान और राजनीतिक एकीकरण था। उसने अपने राजनीतिक आदर्श को पूरा करने के लिए दिग्विजय की योजना बनाई। अपनी आंतरिक स्थिति सुदृढ़ कर समुद्रगुप्त ने सैनिक अभियान प्रारम्भ किये। यधपि समुद्रगुप्त के राज्यारोहण तक गुप्त वंश का शासन बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के छोटे से भाग तक सीमित था। सम्पूर्ण देश अनेक छोटी-छोटी इकाइयों (राज्यो) में विभाजित था। अतः समुद्रगुप्त जैसे महत्वाकांक्षी सम्राट के लिए यह उचित ही था कि छोटे-छोटे राज्यो को एक सूत्र में बांधकर पुनः राजनीतिक एकता स्थापित करे। समुद्रगुप्त ने इसी उद्देश्य से दिग्विजय (सैनिक अभियान) की नीति अपनाई। प्रयाग प्रशस्ति से इसकी दिग्विजय के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
समुद्रगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना के लिए निम्नलिखित सैनिक अभियान किये, जिन्हें हम निम्नलिखित संदर्भो के अंतर्गत समंझने का प्रयास करेंगे—
आर्यवर्त की विजय: उत्तर भारत का एकीकरण
समुद्रगुप्त ने अपना विजय अभियान ‘आर्यवर्त’ या उत्तरी भारत से किया। इस क्रम में उसने अच्युत, नागसेन और गणपति नाग को पराजित किया। अपने दूसरे अभियान में उसने उपरोक्त तीन राजाओ के अतिरिक्त 6 अन्य राजाओ को पराजित किया। इस प्रकार कुल मिलाकर उत्तरी भारत के नौ राजाओ को पराजित किया यथा– रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नंदी एवं बलवर्मन। इन राजाओ को पराजित करने के बाद उनके राज्यो को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उत्तर भारतीय राज्यो को मगध के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लाना समुद्रगुप्त के लिए अति आवश्यक था। वह जानता था कि उत्तर भारतीय राज्यो को एक राजनीतिक छत्र-छाया में लाने के बाद ही अखिल भारतीय साम्राज्य के लिए कदम बढ़ाया जा सकता है। उत्तरी भारत की विजय के बाद उसका साम्राज्य पूर्वी मालवा से पश्चिमी बंगाल और हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत तक फैल गया था।
आटविक और दक्षिणापथ विजय: विस्तार और कूटनीति का संगम

आर्यवर्त की विजय के बाद समुद्रगुप्त ने आटविको (जंगली राज्यो) को परास्त किया, ये शासक मथुरा से नर्मदा तक फैले हुए थे। आटविक राजाओ ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार किया और सम्राट की सेवा करने का वचन दिया। संभवतः ये राज्य बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, रीवा तथा विंध्य श्रृंखला में थे।
इस प्रकार आटविको पर विजय प्राप्त करने के पश्चात समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमा दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैल गई। आटविक राज्यो पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में समुद्रगुप्त ने ‘व्याघ्रनिहंता’ प्रकार की मुद्राओ को प्रचलित किया ‘व्याघ्र-पराक्रम’ की उपाधि धारण की।
उत्तर भारत में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के बाद समुद्रगुप्त एक शक्तिशाली सम्राट बन चुका था लेकिन उसकी साम्राज्य विस्तार की लालशा अभी शांत नही हुई थी अतः अपनी साम्राज्य विस्तार की लालशा को शान्त करने के लिए उसने दक्षिण के राजाओ के विरूद्ध सैनिक अभियान किया। समुद्रगुप्त के दक्षिण अभियान का उद्देश्य वहां के राजाओ को गुप्त साम्राज्य में मिलाना नही था। दक्षिण के राजाओ से समुद्रगुप्त अपनी अधीनता स्वीकार करना चाहता था क्योंकि वह एक दूरदर्शी सम्राट था। वह जानता था कि दक्षिण भारत के राज्यो को प्रत्यक्ष नियंत्रण में रख पाना असंभव है क्योंकि उस समय संचार साधनों और यातायात के साधनों के अभाव में दक्षिण के दूरस्थ प्रदेशो पर अधिकार रखना कठिन है। इसिलिये दक्षिण के राज्यो के साथ एक दूसरी नीति का अनुसरण कर समुद्रगुप्त ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। उसने इन राजाओ के साथ ग्रहण, मोक्ष और अनुग्रह की नीति अपनाई। पहले उसे पराजित करना, फिर उसे मुक्त करना और उसका राज्य लौटाकर दया करने की नीति। अपनी इस नीति के द्वारा उसने इन राजाओ को अपना आधिपत्य स्वीकार करने के लिए विवश किया और उनके राज्यो के शासन का भार भी अपने कंधों पर नही लिया। इस प्रकार उसकी यह नीति समुद्रगुप्त की दूरदर्शिता एवं कूटनीतिज्ञता का परिचय देती है क्योंकि वह इन राज्यो से सहानुभूति प्राप्त करने में सफल रहा।
सीमावर्ती राज्य और गणराज्यों की अधीनता
समुद्रगुप्त की विजयो का प्रभाव उत्तर-पूर्वी भारत और हिमालय के सीमान्त-राज्यो पर भी पड़ा। प्रयाग प्रशस्ति में पांच राज्यो और नौ गणराज्यो का उल्लेख है। इनमे अनेक ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। ऐसे राज्यो में प्रमुख थे— समतट (बांग्ला देश), डवाक (बांग्ला देश तथा आसाम में नवगांव), कामरूप (आसाम), कर्तपुर (कुमांयू, गढ़वाल, रुहेलखंड अथवा जालंधर का इलाका), नेपाल भी संभवतः समुद्रगुप्त के प्रभाव में आ गया क्योंकि इसी समय से वहां ‘गुप्त संवत’ का चलन आराम्भ हुआ।
समुद्रगुप्त की एक महान उपलब्धि यह भी मानी जाती है कि उसने सदियो से आ रही गणतंत्रों (गणतांत्रिक व्यवस्था) को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। ये मालवा, पंजाब, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ भागों में स्थित थे। समुद्रगुप्त ने इन गणराज्यो की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया तथा उन्हें कर देने के लिए बाध्य किया। इन राज्यो ने सर्वकरदान, आज्ञाकारण और प्रणामागमन के द्वारा समुद्रगुप्त को सन्तुष्ट करने का प्रयास किया। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की वह पूर्व में ब्रहमपुत्र, पश्चिम में यमुना, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में नर्मदा तक विस्तृत था। इस सीमा के अतिरिक्त भी प्रायः सभी भारतीय राज्यो पर समुद्रगुप्त का प्रभाव था।
भारतीय नेपोलियन: एक ऐतिहासिक उपमा
समुद्रगुप्त ने अपने विजय अभियानों के द्वारा उत्तर वैदिक काल से आराम्भ हुए साम्राज्यवाद को प्रतिष्ठित किया। कनिष्क के पश्चात उसने प्रथम बार अव्यवस्थित उत्तर भारत को संगठित किया एवं विंध्य पार साम्राज्य स्थापित करके उत्तर एवं दक्षिण भारत को पुनः एक राजनीतिक छत्र-छाया में लाया। उसने राजतंत्र के कट्टर विरोधी गणराज्यो को शक्तिहीन करके राजतंत्र को सुदृढ़ किया। एक विजेता के रूप में समुद्रगुप्त को नेपोलियन के समकक्ष रखा जाता है परन्तु जहां समुद्रगुप्त का साम्राज्य दीर्घकाल तक स्थाई रहा वही नेपोलियन के विजय अभियान अस्थायी प्रमाणित हुए। अनेक विद्वानों ने उसकी सैनिक विजयो के कारण उसे “भारत का नेपोलियन“ कहा है।
प्रशासन और सांस्कृतिक योगदान
समुद्रगुप्त के प्रशासनिक संगठन की जानकारी अत्यल्प है। समुद्रगुप्त द्वारा गठित शासन प्रणाली में सामंती प्रथा का आराम्भ हुआ, फलस्वरूप भारतीय राजनीति में विकेन्द्रीयकरण की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी।
इस काल मे ब्राह्मण धर्म की गरिमा में वृद्धि हुई लेकिन समुद्रगुप्त का ब्राह्मण धर्म समर्थक होने के बावजूद भी वह अन्य धर्मो के प्रति उदार एवं सहिष्णु रहा। संस्कृत भाषा ने अपनी स्थिति सुदृढ़ की। हरिषेण तथा सुबन्ध जैसे महान विद्वानों को उसके दरबार मे संरक्षण प्राप्त था। इस काल मे कला का भी अभूतपूर्व विकास हुआ।
Must Read It: गुप्त काल की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ: धर्म, साहित्य और कला का स्वर्ण युग
निष्कर्ष: एक युगांतकारी सम्राट
इस प्रकार उपरोक्त अध्ययनों के सिंहावलोकन के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि समुद्रगुप्त की उपलब्धियां राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसने विखण्डित भारत को एकता के सूत्र में बांधकर एक अखिल भारतीय साम्राज्य का निर्माण कर, राष्ट्रीयता के आदर्श को पुनर्जीवित किया। जिस प्रकार अशोक की महानता की पृष्ठभूमि का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया, उसी प्रकार चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय की चर्मोत्कर्ष पर अवस्थित गुप्त साम्राज्य को ठोस आधार समुद्रगुप्त ने ही प्रदान किया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि समुद्रगुप्त द्वारा स्थापित विशाल साम्राज्य नैतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक और भौतिक समृद्धि के ऊंचे स्तर पर पहुँच गया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि समुद्रगुप्त की सैनिक उपलब्धियां गुप्त साम्राज्य के लिए एक युगांतकारी घटना थी।
FAQ (People Also Ask)
Q1. समुद्रगुप्त को ‘भारतीय नेपोलियन’ क्यों कहा जाता है?
उत्तर: समुद्रगुप्त को ‘भारतीय नेपोलियन’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसने असाधारण वीरता और सैन्य कुशलता के बल पर भारत के विशाल भूभाग को अपने अधीन किया। उसकी युद्ध-नीति और संगठनात्मक क्षमता इतनी प्रभावशाली थी कि ब्रिटिश इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने उसकी तुलना यूरोपीय विजेता नेपोलियन बोनापार्ट से की। अंतर केवल इतना था कि समुद्रगुप्त की विजयों ने भारत में स्थायी राजनीतिक एकता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की नींव रखी
Q2. समुद्रगुप्त की प्रमुख विजयों के प्रमाण क्या हैं?
उत्तर: समुद्रगुप्त की विजयों का सबसे विश्वसनीय प्रमाण प्रयाग प्रशस्ति नामक अभिलेख से प्राप्त होता है, जिसे उसके दरबारी कवि हरिषेण ने रचा था। इस शिलालेख में उसके उत्तर, दक्षिण और सीमावर्ती विजय अभियानों का विस्तार से उल्लेख है। इसके अलावा, समुद्रगुप्त की स्वर्ण मुद्राएँ — जिन पर “अश्वमेध” और “व्याघ्रनिहंता” जैसे अंकन मिलते हैं — उसके पराक्रम और शौर्य की पुष्टि करती हैं। ये प्रमाण गुप्तकालीन राजनीतिक विस्तार, धर्म नीति और सांस्कृतिक उत्थान की झलक भी देते हैं।
Q3. समुद्रगुप्त की दक्षिण नीति क्या थी?
उत्तर: समुद्रगुप्त की दक्षिण नीति शक्ति और कूटनीति के संतुलन पर आधारित थी। उसने दक्षिण भारत के बारह शासकों को युद्ध में पराजित किया, किंतु उनके राज्यों को अपने शासन में सम्मिलित नहीं किया। उसने “ग्रहण, मोक्ष और अनुग्रह” की नीति अपनाई — अर्थात् पहले युद्ध द्वारा नियंत्रण, फिर क्षमा, और अंततः पराजित राजाओं को शासन का अधिकार लौटा देना। इस प्रकार, दक्षिण के राज्य उसके प्रति निष्ठावान तो बने ही, साथ ही उन्होंने गुप्त आधिपत्य को भी मान्यता दी।
Q4. समुद्रगुप्त के सांस्कृतिक योगदान क्या थे?
उत्तर: समुद्रगुप्त केवल एक महान योद्धा ही नहीं, बल्कि कला और संस्कृति का समर्थ संरक्षक भी था। उसके शासनकाल में संस्कृत साहित्य, संगीत और मूर्तिकला का अत्यधिक विकास हुआ। उसने विद्वानों और कवियों — जैसे हरिषेण और सुबन्ध — को संरक्षण दिया। धार्मिक दृष्टि से वह सहिष्णु था; उसने ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध और जैन परंपराओं को भी समान आदर दिया। अनेक मंदिरों और शिक्षण संस्थानों को उसके द्वारा अनुदान प्राप्त हुआ, जिससे गुप्त युग को भारतीय संस्कृति का स्वर्ण युग कहा जाने लगा।
Q5. समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमा कहाँ तक फैली थी?
उत्तर: समुद्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। पूर्व दिशा में इसका विस्तार ब्रह्मपुत्र नदी तक और पश्चिम में यमुना नदी तक था। इसके अतिरिक्त, समतट (वर्तमान बांग्लादेश), कामरूप (आसाम), नेपाल तथा कर्तपुर जैसे सीमावर्ती क्षेत्र भी उसके प्रभाव क्षेत्र में आते थे। उसका साम्राज्य न केवल विशाल था, बल्कि प्रशासनिक दृष्टि से सशक्त और राजनीतिक रूप से एकीकृत भी था।
