दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश (आरम्भिक तुर्क) के पतन के कारण/ Causes of the Decline of the Slave (Early Turk) Dynasty in the Delhi Sultanate

गुलाम वंश का पतन भारतीय मध्यकालीन इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। इस लेख में दिल्ली सल्तनत के शुरुआती तुर्क शासकों के पतन के राजनीतिक, सैन्य, सामाजिक और प्रशासनिक कारणों को सरल और शोधात्मक तरीके से समझाया गया है।

दिल्ली के आदि तुर्क सुल्तानों अथवा ममलुक वंश (गुलाम वंश) जिसकी स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक और इल्तुतमिश ने की थी तथा जिसे बलबन ने स्थायित्व एवं सुदृढ़ीकरण प्रदान किया था। वह 100 वर्षो के अंदर ही (1206-1290 ई0) ही समाप्त हो गया। बलबन के बाद इस वंश में ऐसा कोई भी योग्य शासक नही हुआ जो सल्तनत को संभाल सके। अतः खिलजियों ने रक्तरंजित क्रांति का सहारा लेकर तुर्को की सत्ता समाप्त कर दी एवं खिलजी साम्राज्यवाद की नींव डाली। तुर्को (गुलाम वंश) की सत्ता के पतन के लिए अनेक कारण उत्तदायी थे, जिन्हें निम्नलिखित संदर्भो में उल्लेखित किया जा सकता है—

प्रमुख कारण – Why Did the Slave Dynasty Collapse?

1 उत्तराधिकार के निश्चित नियम का अभाव

आरम्भिक तुर्की सत्ता में उत्तराधिकार के नियम का पूर्णतया अभाव  था। इस कारण सुल्तान की मृत्यु होने पर संघर्ष का होना अवश्य था। प्रत्येक सुल्तान के उपरांत किसी न किसी प्रकार का संघर्ष, कुचक्र तथा षड़यंत्र हुआ जिसने साम्राज्य की शक्ति को बड़ा आघात पहुंचाया। योग्य तथा प्रतिभाशाली सुल्तान इस दोष को दूर करने के लिए अपने उत्तराधिकारी को अपनी मृत्यु के कुछ दिन पूर्व ही नियुक्त कर दिया करते थे,किन्तु महत्वाकांक्षी अमीरो ने उनके आदेशो की अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए सदा अवहेलना की तथा स्वयं इस बात का निर्णय लिया कि सुल्तान कौन बनेगा? उदाहरणस्वरूप तुर्की अमीरो की सहायता से आरामशाह को मारकर इल्तुतमिश सुल्तान बना। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद तुर्क अमीरो ने फिरोजशाह को सुल्तान बनाया। यही प्रक्रिया आगे भी चलती रही कैकुबाद और क्युमर्स की हत्या करवाकर फिरोज खिलजी ने गुलाम वंश के शासन को ही समाप्त कर दिया। इस प्रकार उत्तराधिकार के निश्चित नियम के अभाव ने आदि तुर्क सुल्तानों की शक्ति को नष्ट करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

2 निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन व्यवस्था

समस्त सुल्तानों का शासन पूर्णतया निरंकुश तथा स्वेच्छारी था। यह शासन अधिक समय तक स्थाई नही रह सकता। इसका आधार सुल्तान की योग्यता तथा सैनिक शक्ति होती है। उसमे अभाव उत्पन्न होते ही शासन पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। योग्य शासको ने अपनी सैनिक शक्ति तथा प्रतिभा के आधार पर विरोधी तत्वों का विनाश किया, किन्तु निर्बल शासको के काल मे पारस्परिक संघर्ष तथा कलह ने अपना नग्न तांडव किया।

3 अयोग्य और कमजोर उत्तराधिकारी

यह युग सैनिक युग था। उन सुल्तानों को ही सफलता प्राप्त हुई जिनमे सैनिक योग्यता तथा प्रतिभा थी। इस वंश में कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश और बलबन योग्य सुल्तान थे, किन्तु उनके उत्तराधिकारी निकम्मे, विलासी तथा अयोग्य थे। रजिया में यधपि पर्याप्त गुण थे, किन्तु उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता उसका स्त्री होना था जिससे उसका विरोध तीव्र तथा शीघ्र ही होने लगा। इन शासको की अयोग्यता तथा अन्य अवगुणों के कारण अमीरो और सरदारों को अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने का स्वर्ण अवसर प्राप्त हुआ।

4 तुर्क अमीरों का शक्ति-संघर्ष

आरम्भ से ही भारत मे तुर्की सुल्तानों की शक्ति का आधार तुर्क अमीर या उनके विश्वासपात्र गुलाम थे। इन्ही लोगो के सहयोग से राज्य की स्थापना एवं इसका विस्तार हुआ था। इनमे से अनेक सुल्तान की गद्दी पर आसीन भी हुए। गोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत मे तुर्की राज्य की स्थापना की, सुल्तान बनने के बाद उसने अपने प्रमुख सहयोगियों को राज्य एवं प्रशासन में महत्त्वपूर्ण पद दिए। वस्तुतः तुर्की सल्तनत के आरंभ से लेकर अंत तक तुर्क अमीर, सुल्तान और प्रशासन पर अपना प्रभाव बनाये रखे। उनकी महत्वाकांक्षाओं और आपसी स्वार्थो की टकराहट ने दरबारी षडयंत्रो को जन्म दिया, जिसमे अनेक निःसहाय सुल्तानों को अपने प्राणों की बलि भी देनी पड़ी। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई कि कोई भी सुल्तान तुर्की अमीरो के समर्थन और सहयोग के अभाव में शासन कर ही नही सकता था। सबसे दुःखद बात यह थी कि तुर्की अमीर अपने स्वार्थो की रक्षा करते थे, न कि सुल्तान और राज्य की। यह स्थिति तुर्की राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई।

5 राजपूत राज्यों का तीव्र प्रतिरोध

हर्षवर्धन के पश्चात भारतीय राजनीति में राजपूतो का उदय एक सशक्त शक्ति के रूप में हुआ। इन राजपूत शासको ने महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के दौरान तुर्को का प्रतिरोध किया था। इन राजपूत शासको को परास्त करके ही तुर्को ने भारत मे तुर्की राज्य की स्थापना की। राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक कारणों से बाध्य होकर राजपूतो ने जब भी मौका पाया दिल्ली के सुल्तानों के विरुद्ध विद्रोह किया एवं उनकी सत्ता को खुली चुनौती दी। दो-आब, मध्य-भारत और राजपूताना ने हमेशा दिल्ली सल्तनत के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। सुल्तानों की पर्याप्त शक्ति और समय इन विद्रोहियों पर नियंत्रण स्थापित करने में व्यतीत हुआ। सुल्तानों ने अनेको बार क्रूरतापूर्वक इन विद्रोहियों को दबाया लेकिन वे इनका उन्मूलन नही कर सके। राजपूत राज्यो ने तुर्की सत्ता पर कड़ा प्रहार किया।

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6 मंगोल आक्रमणों का भीषण प्रभाव

गुलाम वंश के शासको को उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र से सदैव मुसीबते झेलनी पड़ी। पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोल और खोखर सदैव उत्पाद मचाया करते थे। इसिलिये दिल्ली के सुल्तानों का समय और शक्ति इन मंगोल आक्रमणकारियों से तुर्की राज्य की सुरक्षा करने में बहुत अधिक लगी। लगभग सभी तुर्क सुल्तानों को मंगोलो कि समस्याओ से जूझना पड़ा। मंगोलो के आक्रमणों ने सल्तनत की शक्ति एवं प्रतिष्ठा पर कड़ा प्रहार किया। परिणामस्वरूप प्रांतीय अधिकारी, विशेषकर लाहौर के प्रान्तपति मौका पाते ही विद्रोह पर उतारू हो जाते थे। केंद्रीय सत्ता के कमजोर पड़ने पर इन प्रांतपतियो के विद्रोह अधिक सशक्त हो गये जिसने अंततः सल्तनत के पतन में योगदान दिया।

7 अन्य महत्वपूर्ण कारण

उपर्युक्त वर्णित कारणों के अतिरिक्त आरम्भिक तुर्को के पतन में अन्य कारणों का भी योगदान रहा। तुर्की सुल्तानों ने सामान्यतः धार्मिक विभेद की नीति अपनाकर बहुसंख्यक जनता का समर्थन खो दिया। बलबन के अतिरिक्त अन्य किसी भी सुल्तान ने प्रशासनिक संगठन पर पूरा ध्यान नही दिया। फलस्वरूप शासन स्वेच्छाचारी और सैनिक स्वरूप का बन गया। प्रशासन में योग्य व्यक्तियों के स्थान पर  सैनिक शक्ति से सम्पन्न अमीरो और सरदारों  को स्थान दिया गया। इसी प्रकार बलबन ने सिर्फ कुलीन वंशीय तुर्को को ही राज्य में महत्त्वपूर्ण पद दिये। फलतः राज्य की योग्य और निष्ठावान प्रशासकों की कमी थी, जो प्रशासन को उदार और लोककल्याणकारी बना पाते। जो तुर्क अमीर प्रशासक थे उनका अधिकांश समय राजनीतिक षडयंत्र में ही व्यतीत हुआ था। इससे प्रशासन दुर्बल हुआ और राजनीतिक षड़यंत्र बढ़ते गए।
सल्तनत के पतन का एक महत्वपूर्ण कारण था, शासक वर्ग का आपसी जातीय विद्वेष की भावना में लिप्त होना। इस समय तुर्क, खिलजी, अफगान, नाव-मुस्लिम को अन्य लोगो की तुलना में कम महत्व दिया गया। इसी प्रकार तुर्को की तुलना में खिलजियों एवं अफगानों की प्रशासन एवं राजनीति में उपेक्षा की गयी। परिणामस्वरूप इनमे आपसी प्रतिस्पर्धा एवं जातीय विद्वेष की भावना बलवती हुई, जिसने दिल्ली के गुलाम वंश के पतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। दिल्ली के तुर्की सुल्तानों ने राज्य की अर्थव्यवस्था सुधारने अथवा सामाजिक विषमताओं को कम करने का प्रयास नही किया। उनका शासन वस्तुतः तुर्की सामंत, सेना और उलेमा वर्ग पर ही आश्रित था जो अत्यंत अविश्वासी एवं स्वार्थलोलुप था। इन तीनो वर्गों ने अपने व्यक्तिगत हितों की ही रक्षा की तथा सुल्तान अथवा राज्य के हितों की अनदेखी की। ऐसी परिस्थिति में आरम्भिक तुर्की सल्तनत का पतन होना आवश्यक हो गया था।

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निष्कर्ष

गुलाम वंश का अंत किसी एक घटना या कमजोरी का परिणाम नहीं था। इसके पीछे कई स्तरों पर चल रही राजनीतिक खींचतान, सैन्य चुनौतियाँ, प्रशासनिक असंतुलन और सामाजिक तनाव एक साथ काम कर रहे थे। उत्तराधिकार पर अस्पष्टता ने सत्ता संघर्ष को बढ़ाया, वहीं अमीरों का हस्तक्षेप इतना मजबूत हो गया कि सुल्तानों की कार्यक्षमता लगातार घटती गई। इसके साथ ही अयोग्य शासकों की नियुक्ति, सीमांत क्षेत्रों पर मंगोल और राजपूतों द्वारा उत्पन्न दबाव, तथा प्रशासन में जातीय प्रतिस्पर्धा ने तुर्क सुल्तानों अथवा ममलुक वंश की नींव को हिला दिया।

इन सभी कारणों के संयुक्त प्रभाव से 1206 से 1290 ईस्वी के बीच गुलाम वंश धीरे-धीरे कमजोर पड़ता गया और अंततः दिल्ली सल्तनत में खिलजी वंश का उदय हुआ, जिसने एक नए ऐतिहासिक युग की शुरुआत की।

FAQs

Q1. गुलाम वंश का पतन कब हुआ?

Ans: गुलाम वंश का अंत लगभग 1290 ईस्वी में माना जाता है, जब सुल्तान कैकुबाद की हत्या के बाद सत्ता पूरी तरह कमजोर हो गई और दिल्ली की गद्दी पर खिलजी वंश का उदय हुआ।

Q2. गुलाम वंश के पतन का मुख्य कारण क्या था?

Ans: तुर्क सुल्तानों अथवा ममलुक वंश के पतन का सबसे मुख्य कारण उत्तराधिकार के नियम का न होना। सत्ता की इस अनिश्चितता ने समय-समय पर षड्यंत्र, आंतरिक संघर्ष और गृहयुद्ध को जन्म दिया, जिसने शासन को भीतर से कमजोर कर दिया।

Q3. क्या मंगोल आक्रमणों ने गुलाम वंश को कमजोर किया?

Ans: हाँ, बार-बार होने वाले मंगोल हमलों ने दिल्ली सल्तनत की सैन्य और आर्थिक क्षमता पर गहरा दबाव डाला। संसाधनों की कमी और लगातार खतरे के कारण सीमांत क्षेत्रों में असंतोष और विद्रोह बढ़ने लगे, जिससे वंश की स्थिरता प्रभावित हुई।

Q4. क्या अमीरों की शक्ति गुलाम वंश के लिए घातक थी?

Ans: बिल्कुल। समय के साथ तुर्क अमीरों का प्रभाव इतना बढ़ गया कि वे सुल्तान के फैसलों को नियंत्रित करने लगे। कई अवसरों पर वे अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए कमजोर सुल्तानों को हटाने या समाप्त करने तक से नहीं हिचकिचाए, जिसने तुर्क सुल्तानों अथवा ममलुक वंश के शासन को खोखला बना दिया।

Q5. गुलाम वंश के अंत के बाद कौन-सा वंश सत्ता में आया?

Ans: गुलाम वंश के पतन के बाद दिल्ली सल्तनत की सत्ता खिलजी वंश के हाथों में आ गई। इसी दौर में अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी नीतियों और सैन्य अभियानों के माध्यम से साम्राज्यवादी विस्तार की मजबूत नींव रखी।

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