Akbar’s Religious Policy (अकबर की धार्मिक नीति): Evolution and Critical Review.

अकबर की धार्मिक नीति भारतीय इतिहास में सहिष्णुता, सांस्कृतिक समन्वय और राष्ट्रीय एकता का एक अनूठा उदाहरण मानी जाती है। दीन-ए-इलाही और सुलह-ए-कुल जैसी उसकी पहलें समाज में समानता, परस्पर सम्मान और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को सुदृढ़ करने में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसकी नीति किस प्रकार विकसित हुई, इसके पीछे क्या कारण थे और इसका क्या प्रभाव पड़ा—इन सबको समझना अकबर के शासन की व्यापक दृष्टि को जानने में मदद करता है।

अकबर की धार्मिक नीति उसकी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति नही अपितु उसके अन्तःकरण से उपजी एक ऐसी तकनीकी है, जिसके द्वारा वह ऐसे भारत का निर्माण चाहता था, जिसमे समभाव एवं समरसता के बीज मौजूद हो और इसके लिए यह आवश्यक था कि समाज के विभिन्न विरोधाभाषी एवं संकीर्ण तथ्यो को एकता के स्रोत में पिरोया जाय। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म का सृजन किया था। वास्तव में हमसे भूल उस समय हो जाती है जब हम दीन-ए-इलाही को नैतिक संहिता मनाने के स्थान पर धर्म में बैठते है, जबकि दीन-ए-इलाही  अकबर की एक सोची समझी राजकीय नीति थी, जिसके द्वारा वह राज्य को केंद्रीय स्वरूप देना चाहता था। अकबर की इस नीति को सुलह-ए-कुल की नीति भी कहते है, जिसका तात्पर्य सार्वभौमिक सहिष्णुता अर्थात सभी धर्मों के लोगो के साथ सहिष्णुता पूर्ण व्यवहार करना। अकबर के इन धार्मिक उदार विचारों के विकास में निम्नलिखित बातों ने योगदान दिया।

अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारण

1. पैतृक प्रभाव

अकबर के पितामह बाबर और पिता  हुमायूँ  कट्टर सुन्नी होते हुए भी स्वभाव से उदार थे। अकबर की माता हमीदा बानो बेगम शिया थी। उनके विचार सूफी सम्प्रदाय के मत से प्रभावित थे। अकबर के गुरु अब्दुल लतीफ भी उदार व्यक्तित्व का स्वामी था। अकबर के जीवन पर उसके गुरु एवं माता हमीदा बनो बेगम की उदारता का भी प्रभाव पड़ा। इस प्रकार अकबर को उदार एवं सहिष्णु धर्म नीति अपनाने की प्रेरणा अपने पूर्वज बाबर, हुमायूँ, अब्दुल लतीफ, हमीदा बानो बेगम आदि से विरासत में मिली थी।

2. राजपूत परिवेश में लालन-पालन

 अकबर का जन्म राजपूत राज्य अमरकोट में हुआ था और यही उसका लालन-पालन राजपूत रीति-रिवाजों एवं मान्यताओं के बीच हुआ था। अकबर की धार्मिक नीति पर उसकी बाल्यावस्था की पृष्ठभूमि का प्रभाव भी रहा होगा।

3. हिन्दू राजकन्याओं से विवाह

 अकबर के कई हिन्दू राजघरानों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित थे। अकबर की हिन्दू पत्नियों की धार्मिक मान्यताओं और विचारों का प्रभाव भी उसकी धार्मिक नीति पर पड़ा होगा।

4. विभिन्न धर्माचार्यों का प्रभाव

 अकबर विभिन्न धार्मिक आचार्यो से भी बहुत प्रभावित हुआ। हिन्दू आचार्यो में परुषोत्तम और देवी जैन आचार्यो में हरिविजय, विजयसेन सूरी पारसीधर्माचार्य  दस्तूर मेहरजी राणा आदि ने विशेष रूप से उनको प्रभावित किया। ईसाई और सिक्ख धर्म के धर्माचार्यो का भी उस पर बड़ा प्रभाव पड़ा।

5. राजनीतिक महत्वाकांक्षा

 अकबर बडा ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी उसके धार्मिक विचारों को उदार बनाने में सहायक सिद्ध हुई। वह एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक था कि वह राजपूतो का सहयोग प्राप्त करे। अतः उसने राजपूतो के साथ धार्मिक उदारता की नीति अपनाई।

6. मध्यकालीन धार्मिक आंदोलन का प्रभाव

 बहुत लम्बे समय से भारत मे धार्मिक आंदोलन का जागरण चल रहा था। विभिन्न धर्मानुयायियों ने धार्मिक बाह्य आडम्बरो तथा कट्टरता का डटकर विरोध किया। उन्होंने प्रेम और उदारता की शिक्षा दी औए दोनो धर्मो के अनुयायियों में समन्वय उत्पन्न करने की ओर प्रयत्नशील हुए। अकबर पर भी धार्मिक आंदोलन का प्रभाव पड़ना स्वभाविक था।

7. अबुल फज़ल-फैजी का प्रभाव

अकबर शेख मुबारक तथा उसके पुत्रो अबुल फजल और फैजी के सम्पर्क में रहा तथा इन्हें राजकीय संरक्षण प्रदान किया। इन तीनो की धार्मिक उदारता सम्बन्धी विचारों ने भी अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित किया होगा।

धार्मिक नीति के विकास के चरण

अकबर की धार्मिक नीति एक क्रमिक विकास की प्रक्रिया का परिणाम थी। अतः अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इसे तीन चरणों मे विभक्त करके समझा जा सकता है—

डॉ0 विसेन्ट स्मिथ ने अकबर के धार्मिक विचारों का विकास तीन चरणों (कालो) में विभक्त किया है, जो इस प्रकार है—-

प्रथम चरण (1556~1575 ई0)

सन 1556 ई0 से 1562 ई0 तक अकबर बैरम खां एवं माहम अनगा के प्रभाव में रहा, अतः इस दौरान अकबर ने कोई स्वतंत्र धार्मिक नीति का संचालन नही किया। किन्तु 1562 ई0 तक बैरम खां एवं माहम अनगा की मृत्यु हो चुकी थी। इसके उपरांत अकबर ने स्वतंत्र धार्मिक नीति का संचालन किया तथा उदार एवं सहिष्णु धार्मिक नीति अपनाई।

इस चरण में अकबर की धार्मिक नीति मुख्यतः दो कारकों से प्रभावित थी। प्रथम अकबर का प्रथम राजपूत विवाह 1562 ई0 में आमेर की राजकुमारी हरकबाई (जोधाबाई) से हुआ था। अतः राजपूतो का समर्थन प्राप्त करने हेतु अकबर ने उदार धार्मिक नीति अपनाई। उसी प्रकार अकबर शेख मुबारक एवं उसके पुत्रो अबुल फजल एवं फैजी के सम्पर्क में आया एवं उनके विचारो से प्रभावित हुआ। अबुल फजल के अनुसार बादशाह पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिबिम्ब होता है, चूंकि ईश्वर अपनी संतानों के मध्य भेदभाव नही करता है, अतः बादशाह को भी अपनी प्रजा के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। इन विचारों से प्रभावित होकर अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। इस चरण में अकबर ने कुछ उदार निर्णय लिये जैसे- अकबर ने 1562 ई0 में दास प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया, 1563 ई0 में तीर्थ यात्रा कर को समाप्त कर दिया, 1564 ई0 में जजिया कर समाप्त कर दिया, एवं 1565 ई0 में युद्ध बंदियों को जबरन (जबरदस्ती) धर्मांतरण करने पर रोक लगा दी।

इसी चरण में अकबर धर्म मे निहित विभिन्न बातों की जानकारी करने हेतु प्रेरित हुआ। इस उद्देश्य से 1575 ई0 में फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना (प्रार्थना) की स्थापना की गई। जहाँ पर धार्मिक एवं दार्शनिक विषय पर चर्चा की  जाती थी। कालान्तर में जब यह विभिन्न धर्मों के बीच संघर्ष का विषय बन गया तो उस समय अकबर  उस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सभी धर्मो में सत्य तो मौजूद है पर कोई भी धर्म अंतिम रूप से सत्य नही है अर्थात सभी धर्मों का सार एक ही है। और वह मुस्लिम उलेमा वर्ग की धार्मिक संकीर्णता एवं कट्टरता को समझ गया। इसके बाद अकबर ने राजनीति में उलेमा वर्ग के प्रभाव को सीमित करने का निर्णय लिया।

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द्वितीय चरण (1575~1582 ई0)

इस चरण में अकबर ने उलेमा वर्ग का राजनीति में हस्तक्षेप समाप्त करने  तथा उनसे धार्मिक शक्ति छीनकर स्वयं में केंद्रित करने का निर्णय लिया। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु अकबर ने 1579 ई0 में दो महत्वपूर्ण प्रयास किये। प्रथम 1579 ई0 में अकबर ने फतेहपुर सीकरी की जामा मस्जिद से स्वयं खुतबा पढ़ा। इस प्रकार अकबर ने धार्मिक क्रिया-किलापो में उलेमा वर्ग के अधिकारो को अस्वीकार कर दिया। द्वितीय 1579 ई0 में अकबर ने मजहर नामक दस्तावेज जारी किया। मजहरनामा में यह उल्लेख था कि शरीयत की व्याख्या को लेकर उलेमा वर्ग में मतभेद होने पर अकबर इंसान-ए-कामिल (सर्वाधिक विवेकशील) होने के कारण उनमे से किसी एक विचार को चुन सकता है। और यदि राज्य हित मे आवश्यक समझे, तो वह नया विचार भी जारी कर सकता है। इस प्रकार मजहरनामा जे माध्यम से अकबर ने सम्पूर्ण धार्मिक सत्ता स्वयं में निहित कर ली।

विसेन्ट स्मिथ ने मजहरनामा की अमोघत्व का सिद्धांत तथा अकबर की मूर्खता का परिचायक कहा है। स्मिथ के अनुसार अकबर ने मजहरनामा के माध्यम से पैग़म्बर का स्तर प्राप्त करने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप अकबर के विरुद्ध अनेक विद्रोह हुए, जिससे राजनीति अशांति एवं अस्थिरता उत्पन्न हो गई। किन्तु मजहरनामा अकबर की मूर्खता का नही, बल्कि उसकी व्यवहारिक समंझ का परिणाम था। अकबर ने मजहरनामा के माध्यम से न केवल धार्मिक सर्वोच्चता प्राप्त कर ली, बल्कि इसके माध्यम से उसने खलीफा के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करने अर्थात ईरान के राजनीतिक एवं धार्मिक प्रभाव से भी स्वयं को मुक्त कर लिया। इस प्रकार मजहरनामा अकबर की मूर्खता का परिणाम नहीं था, बल्कि इसका राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय महत्व था।

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तृतीय चरण (1582~1605 ई0)

यह चरण पिछले 20 वर्षो के अनुभव पर आधारित था। इबादतखाना एवं मजहरनामा के विरोध में 1580~81 ई0 के मध्य अकबर के विरुद्ध अनेक विद्रोह हुए। इन विद्रोह में उलेमा वर्ग ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अतः इस अशांत वातावरण में हिन्दू एवं मुस्लिम धर्म के बीच समन्वय स्थापित करने हेतु अकबर ने 1582 ई0 में “दीन-ए-इलाही” की घोषणा की। इसके माध्यम से उसने विभिन्न धर्मों, जातियो, समुदायों, को एकता के सूत्र (सुलह-ए-कुल) में बांधने के लिए नैतिक गुणो की आचार संहिता को ठीक उसी प्रकार रखा जैसे कि प्राचीन भारत में अशोक द्वारा धम्म के रूप में रखा गया था। यदि अशोक का धम्म समस्त धर्मो के अच्छे गुणों का समुच्चय था तो दीन-ए-इलाही इसका विरोधाभास नही था। इसिलिए प्रो0 रिजवी ने दीन-ए-इलाही को धर्म मानने के स्थान पर शासक एवं अधिकारियों तथा जनता के बीच आध्यात्मिक एकता स्थापित करने का मूल मन्त्र बताया है।

  इस नये धर्म मे कुल 18 सदस्य थे और इसे प्रचारित करने के लिए किसी मिशन की स्थापना नही की गई थी। न ही इसका कोई ईष्ट था, और न ही कोई साहित्य, न ही कोई पूजा स्थल था और न ही किसी व्यक्ति को दण्ड या लोभ से प्रभावित करके इसे ग्रहण करने के लिए किसी को विवश किया गया था।

अकबर की महानता के पीछे  केवल यह तर्क नही दिया जा सकता कि वह धार्मिक सहिष्णु था, उसका साम्राज्य बड़ा था, वह मौलिक चिंतक था, अदम्य साहसी वीर था। अपितु इसिलिए वह महान है क्योंकि उसमें समस्त का सार था।

अकबर की धार्मिक नीति की समीक्षा

 अकबर की धार्मिक नीति के आलोचक स्मिथ और हेग ने यह कहा है कि वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु तो था, परन्तु इस्लाम के प्रति हमेशा असहिष्णु बना रहा। परन्तु विद्वान इतिहासकारो की दृष्टि पर उस समय प्रश्न चिह्न लग जाता है, जब वे यह नही बता पाते कि अकबर ने कब कुरान और पैगम्बर को अपमानित किया था, और उसने कब मुस्लिम त्यौहारो पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा किया था। और क्या बदांयूनी का यह कहना गलत है, कि पैगम्बर को अपमानित करने वाले लोगो को अपमानित नही किया गया था। यह प्रश्न भी निरूत्तर है तो यदि अकबर इस्लाम का विरोधी था तो उसने दफन होने के स्थान पर स्वयं को आग की आहुति देने का वसीयतनामा क्यो नही लिखा। और उसने कब दीन-ए-इलाही को नया धर्म घोषित किया था, और क्या उसने प्रति दिन के मिलन का अभिवादनवाद “अल्ला हो अकबर” को निर्धारित नही किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि उसने इस्लाम के अंधविश्वासों को उसी तरह चोट मारी थी, जिस तरह से उसने हिन्दू धर्म के वैचारिक कृत्यों को। यदि उसने मुस्लिम मुहर्र्मो, हज यात्रा और खतना आदि पर प्रतिबंध लागू किये तो सती प्रथा, बाल विवाह जैसी हिन्दू धर्म की कुरीतियों पर भी प्रहार किया था। इसिलिए उसके ऊपर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप, हिन्दू-मुस्लिम विरिधियो के द्वारा ही लगाया जाता रहा है।

निष्कर्ष

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि यधपि अकबर की धार्मिक नीति के कुछ नकारात्मक पक्ष भी थे, किन्तु उसकी धार्मिक उदारता की नीति का व्यापक महत्व था। उसका “सुलह-ए-कुल” आज भी प्रासंगिक है क्योंकि इसी के द्वारा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुरक्षित रखा जा सकता है। और हिन्दू-मुस्लिम एकता के द्वारा ही किसी भी राज्य में  अमन-चैन स्थापित किया जा सकता है। अकबर का “दीन-ए-इलाही” इसी लक्ष्य का प्रतीक था।

FAQs – अकबर की धार्मिक नीति

Q1. अकबर की धार्मिक नीति को ‘सुलह-ए-कुल’ क्यों कहा जाता है?

Ans: अकबर की नीति को ‘सुलह-ए-कुल’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें सभी धर्मों के प्रति समानता, सहिष्णुता और निष्पक्ष शासन की भावना निहित थी। उसने किसी धर्म को श्रेष्ठ न मानकर पूरी प्रजा को आदर दिया और समाज में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की सोच विकसित की।

Q2. अकबर ने जज़िया और तीर्थ-यात्रा कर कब समाप्त किया?

Ans: अकबर ने तीर्थ-यात्रा कर को 1563 ई. और जज़िया कर को 1564 ई. में समाप्त किया। इन करों को हटाने का उद्देश्य गैर-मुस्लिम जनता को धार्मिक प्रतिबंधों से मुक्त करना, शासन में समानता स्थापित करना और साम्राज्य में सद्भाव व विश्वास का वातावरण तैयार करना था।

Q3. क्या दीन-ए-इलाही एक नया धर्म था?

Ans: दीन-ए-इलाही वास्तविक अर्थों में कोई नया धर्म नहीं था। यह एक नैतिक और आध्यात्मिक आचार-संकलन था, जिसमें अकबर ने विभिन्न धर्मों की श्रेष्ठ शिक्षाओं को शामिल किया। इसका उद्देश्य धार्मिक कट्टरता कम कर लोगों में नैतिकता, भाईचारा और आपसी सम्मान की भावना बढ़ाना था।

Q4. मजहरनामा क्या था?

Ans: मजहरनामा 1579 ई. में जारी किया गया शाही फरमान था, जिसमें धार्मिक मुद्दों पर अंतिम निर्णय का अधिकार अकबर को प्रदान किया गया। इससे उलेमा और अन्य धार्मिक संस्थाओं की शक्ति सीमित हुई और राज्य की धार्मिक नीति अधिक उदार तथा तार्किक दिशा में विकसित हो सकी।

Q5. क्या अकबर इस्लाम के विरोधी थे?

Ans: अकबर इस्लाम या किसी भी धर्म के विरोधी नहीं थे। वे केवल कट्टरता, अंधविश्वास और संकीर्ण मानसिकता का विरोध करते थे। उनका लक्ष्य ऐसा वातावरण बनाना था जहाँ सभी धर्मों के लोग समान सम्मान, स्वतंत्रता और सहयोग के साथ रह सकें।

Q6. दीन-ए-इलाही में कितने सदस्य शामिल थे?

Ans: दीन-ए-इलाही में लगभग 18 प्रमुख सदस्य सम्मिलित हुए थे। इनमें अबुल फ़ज़ल और राजा बीरबल सबसे प्रतिष्ठित सदस्य थे। यह सभा छोटी थी क्योंकि अकबर ने इसमें केवल उन्हीं व्यक्तियों को शामिल किया जो व्यापक सोच, आध्यात्मिकता और नैतिक अनुशासन को महत्व देते थे।

Q7. अकबर ने इबादतखाना क्यों बनवाया?

Ans: अकबर ने इबादतखाना विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और दार्शनिक परंपराओं के विद्वानों को चर्चा और संवाद का मंच देने हेतु बनवाया था। इसका उद्देश्य सत्य की खोज, धार्मिक समझ बढ़ाना और आपसी मतभेदों को तर्कपूर्ण संवाद के माध्यम से कम करना था, जिससे सामाजिक समन्वय मजबूत हो।

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