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मध्यकालीन भारत के प्रशासनिक इतिहास में शेरशाह सूरी का नाम उनके प्रभावी सुधारों के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें से उनकी भू-राजस्व व्यवस्था सबसे ज्यादा प्रसिद्ध रही, जिसने किसानों और राज्य—दोनों के हितों को संतुलित करने का प्रयास किया। उस समय किसान भारत की आर्थिक संरचना का मुख्य आधार थे, इसलिए शेरशाह ने भूमि माप, कर निर्धारण, पट्टा-कबूलियत और तकाबी ऋण जैसी व्यवस्थाओं को अधिक व्यवस्थित और पारदर्शी बनाया। इन कदमों ने कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ-साथ राजस्व प्रबंधन को भी सरल किया। बाद में अकबर ने भी इन्हीं नीतियों को अपनाकर और विकसित किया। इस लेख में हम शेरशाह सूरी की इसी भू-राजस्व नीति को सरल और स्पष्ट रूप में समझेंगे।

परिचय : शेरशाह सूरी एक कुशल प्रशासक
मध्ययुगीन भरतीय इतिहास में शेरशाह सूरी का महत्व एक सफल प्रशासक के रूप में है। उसकी सबसे बड़ी प्रशासनिक विशेषता यह है की उसने साम्राज्य व प्रशासन की आवश्यकताओ तथा अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान देने वाले सामान्य जनो की मौलिक जरूरतों को समझते हुए ही एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था लागू की, जिसने भविष्य में प्रारूप का काम किया।
भू-राजस्व सुधारों की प्रेरक परिस्थितियाँ
शेरशाह जब युवा फरीद था। उसने अपनी पृष्ठभूमि में बहुत कुछ सीख लिया था। अपने पिता की जागीर संभालने तथा बिहार के भू-प्रशासन के संचालन के क्रम में उसे विशेषकर भू,-राजस्व व्यवस्था की सूक्ष्म आवश्यकताओं का पता लगा। किसानों की जरूरतों से लेकरकर-अदायगी के स्वरूप तक हर स्तर पर शेरशाह की समझ परिपक्व हो चुकी थी। इसीलिए शेरशाह इस सच्चाई से अच्छी तरह परिचित था कि एक दृढ़ साम्राज्य का आधार अर्थव्यवस्था है। और भू,-राजस्व इसका मुख्य व मौलिक स्रोत है। वह इस परिस्थिति से भी परिचित था कि उपजाऊ भूमि की अधिकता में किसनो पर अत्याचार करना संभव नही है, क्योंकि किसानों का पलायन विनाशकारी है। इसीलिए उसने भू,-राजस्व वसूली का एक मध्यम मार्ग अपनाया, जिसमे विवेकपूर्ण एवं मनावतायुक्त सिद्धांत प्रबल था, जिससे राजकोष तो समृद्ध रहे ही किसानों में भी असंतोष न पनपे। राज्य और किसानों के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध की स्थापना इस दिशा में प्रभावी कदम था।
प्रशासनिक विशेषज्ञों का सहयोग
शेरशाह सूरी ने भू,-राजस्व व्यवस्था के निर्धारण में योग्य व्यक्तियों को चुना। हिन्दू जानकारों का भरतीय अर्थव्यवस्था से निकट का सम्बंध था। इसलिए शेरशाह सूरी ने सभी स्तर पर हिन्दुओ से मदद ली। राजा टोडरमल ने शेरशाह की भू,-राजस्व व्यवस्था में विशेष मदद की थी।
इस प्रकार शेरशाह ने अपने अनुभव एवं वर्तमान परिस्थितियों को देखकर कुछ सिद्धांतो को परखा और उन्हें लागू किया। जिन्हें निम्नलिखित संदर्भों के अंतर्गत देखा जा सकता है—-
शेरशाह सूरी की भू-राजस्व व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ
1. भूमि की पैमाइश और वर्गीकरण

शेरशाह ने सर्वप्रथम अपने साम्राज्य के प्रायः समस्त भू-क्षेत्रों में भूमि की पैमाइश करायी। अहमद खां के नेतृत्व में यह काम सम्पन्न हुआ। पैमाइश के लिए सिकंदरी-गज का प्रयोग किया गया, जो 39 अंगुल लम्बी होती थी। खसरा-खतौनी (रजिस्टर) में भू-माप दर्ज कराई गई। भूमि की इकाई बीघा को माना गया। भूमि को पैदावार के आधार पर तीन भागों यथा–उत्तम, मध्यम, तथा निम्न में बांटा गया।
2. कर निर्धारण
भूमि कर निर्धारण के लिए तीनो प्रकार की भूमि की पैदावार के आंकड़ो को प्रति बीघा औसत निकालकर उसका 1/3 हिस्सा कर के रूप में निर्धारित किया गया। यही 1/3 हिस्सा निर्धारण कर अर्थात शासन की मांग कहलाता था। किसानों को भूमि कर नकद या अनाज के रूप में देने की सुविधा थी। जिसमे किसानो की सुविधा का ख्याल रखा गया था। परन्तु शेरशाह नकद को प्राथमिकता देता था। राय या लगान निर्धारण हेतु फसल-दरों की सूची भी जारी की गई थी।
3. भूमि-कर वसूली की पद्धतियाँ
शेरशाह ने भूमि कर निर्धारण के लिए तीन प्रकार की पद्वतियों को अपनाया—
1. जब्ती पद्धति
जब्ती पद्धति के अंतगर्त सरकार तथा किसानों के मध्य ठेका होता था, जिसमे प्रति बीघा की दर कुछ वर्षों के लिए निर्धारित कर दी जाती थी।
2. नश्क अथवा कानकूत पद्धति
इस पद्धति के अनुसार किसान व सरकारी कर्मचारी फसल काटने से पहले फसल का अनुमान लगा लेते थे और अनुमान के आधार पर भूमि कर निर्धारित किया जाता था। नश्क पद्धति एक प्रकार से रैयतवाड़ी पद्धति के ही समान थी। जिसमे प्रजा सीधे सरकार को लगन अदा करती थी।
3. बटाई अथवा गल्ला बख्शी प्रणाली
इस प्रणाली में फसल के तैयार हो जाने पर फसल काटकर उसकी तीन ढेरियां कर दी जाती थी, जिनमे से एक ढेरी सरकार की व अन्य दो ढेरियां किसान की हो जाती थी।
4. पट्टा और कबूलियत प्रणाली

सरकार तथा किसानों के मध्य प्रत्यक्ष संबंध की स्थापना –शेरशाह का एक अन्य महत्वपूर्ण कदम था। सरकार द्वारा भूमि कर निर्धारण करने के बाद किसानों को पट्टे दिए जाते थे, जिसमे बोआई का क्षेत्रफल, फसल की किस्म,और देय लगान राशि भी लिखी होती थी। किसान अपनी स्वीकृति (लिखित) कबूलियत के रूप में सरकार को देते थे। इस व्यवस्था से किसानों को दो फायदे हुए-पहला बुआई के समय ही उन्हें अपनी देय लगान राशि का पता चल जाता था, दूसरा जमीदारों की उत्पीड़क मध्यस्थता से भी उन्हें मुक्ति मिल गई। सरकार को भी वास्तविक लगान राशि मिलती रही।
5. तकाबी ऋण (कृषि सुधार हेतु सहायता)
शेरशाह द्वारा किसानों को कृषि सुधारने अथवा खेत की दशा को सुधारने के लिये ऋण दिया जाता था। सरकार की और से दिए जाने वाले इस ऋण को तकाबी ऋण कहा जाता था।
6. सहायक कर और जनहितकारी कदम
भूमि कर के अतिरिक्त किसानों को भूमि की पैमाइश करने वालो को फीस के रूप में जरीबाना (सर्वेक्षण शुल्क) तथा मुहासिलाना (कर संग्रह शुल्क) भी चुकाने होते थे, जिनकी दरे क्रमशः भू-राजस्व की 2.5% और 5% थी। हसन खां का कहना है कि शेरशाह ने इस तरह की व्यवस्था कर रखी थी कि प्रत्येक भू-धारी और राजस्व दाता अपने कर का 2.5% सार्वजनिक कोषागार में जमा करवाये, ताकि वह धन दुर्घटनाओं या भारी विपत्तियों के समय खर्च किया जा सके। यह कर निश्चय ही अनाज के रूप में वसूला जाता था। जिसका स्थानीय कोठार में भण्डारण किया जाता था। और अकाल के समय की समस्याओ के निवारण के समय उपयोग में लाया जाता था। शेरशाह ने भूमि सुधार को प्रोत्साहन दिया, सूखा या अकाल पड़ने की हालत में लगान में छूट दी जाती थी।
शेरशाह सूरी का कल्याणकारी दृष्टिकोण
शेरशाह ने आदेश दिया कि भूमि कर निर्धारित करते समय राजस्व अधिकारी सहानुभूति से कार्य करे, वसूली करते समय किसी भी प्रकार की रियायत न करे। फसल खराब होने पर किसान भूमि कर से मुक्त कर दिए जाते थे। सैनिक अभियान के समय खड़ी फसलों को किसी प्रकार की हानि हो जाती थी तो किसानों को उसकी क्षतिपूर्ति कर दी जाती थी। अब्बास खां सरवानी का कहना है कि ” सेना के साथ कूच करते समय शेरशाह स्वयं खेतो की हालत देखता था।”
शेरशाह की नीति का प्रभाव और महत्व
शेरशाह सूरी ने जो भू-राजस्व नीति प्रस्तुत की,तत्काल तो लाभदायक रही ही, उसे मुगल सम्राट अकबर ने भी अपनाया और जरूरत पड़ने पर उस पद्धति में संशोधन भी किये, किन्तु मौलिकता बनी रही। निश्चिततः शेरशाह सूरी ने मौलिक भू-राजस्व सुधार नही किये और यह सम्भव भी नही था क्योंकि इसके स्रोतों के स्वरूप में कोई परिवर्तन उस समय तक नही आया था। शेरशाह सूरी का वैशिष्टय इस तथ्य में है कि उसने तुर्क- अफगान युग मे प्रचलित भू-राजस्व व्यवस्था के लाभकारी तत्वों को व्यक्तिगत सतर्कता के साथ प्रस्तुत किया। जिसमें उसे सफलता भी मिली। किन्तु कर्मचारी वर्ग में जो भ्रष्टाचार फैला हुआ था, उसका समूल नाश करने में वह सफल नही हो सका।
हालाँकि वह अधिकारियों के भ्रष्टाचार को पूर्णतः समाप्त न कर सका, फिर भी उसकी नीति को तुर्क-अफगान काल की सर्वश्रेष्ठ राजस्व व्यवस्था माना जाता है।
निष्कर्ष
शेरशाह सूरी ने अपनी भू-राजस्व नीति को विज्ञानसम्मत, पारदर्शी और जनता-हितैषी बनाकर प्रशासन की एक मजबूत नींव रखी। उनकी व्यवस्थाओं ने किसानों पर अनावश्यक बोझ को कम करते हुए राज्य के लिए स्थिर और विश्वसनीय राजस्व प्रणाली तैयार की। यही कारण है कि उनके द्वारा स्थापित कई सिद्धांत बाद में मुगल शासन—विशेषकर अकबर—के राजस्व सुधारों के आधार स्तंभ बने। इस प्रकार शेरशाह की नीति न केवल उनके काल में प्रगतिशील सिद्ध हुई, बल्कि भारतीय प्रशासनिक इतिहास में एक दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ गई।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
Q1. शेरशाह सूरी की भू-राजस्व व्यवस्था का मूल सिद्धांत क्या था, और इसे क्यों महत्वपूर्ण माना जाता है?
उत्तर: शेरशाह की राजस्व नीति का मूल आधार भूमि की औसत पैदावार के एक-तिहाई (1/3) हिस्से को कर के रूप में निर्धारित करना था। यह प्रणाली इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि इससे कर वसूली अधिक न्यायपूर्ण बनी और किसानों पर मनमानी कराधान का दबाव कम हुआ।
Q2. भूमि मापन को सटीक बनाने के लिए शेरशाह ने किन इकाइयों और माप-पद्धतियों का उपयोग किया?
उत्तर: भूमि की माप के लिए सिकंदरी गज (39 अंगुल) का उपयोग किया गया, और मापन इकाई के रूप में बीघा अपनाई गई। इन मानकों ने पूरे राज्य में भूमि मापन की प्रक्रिया को एकरूप और अधिक विश्वसनीय बनाया।
Q3. किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए शेरशाह ने किस प्रकार का ऋण उपलब्ध कराया और इसका उद्देश्य क्या था?
उत्तर: शेरशाह ने किसानों को तकाबी ऋण प्रदान किया, जिसे कृषि सुधार, बीज-खरीद, उपकरणों की व्यवस्था और प्राकृतिक आपदाओं से उबरने जैसी परिस्थितियों में सहायता के लिए दिया जाता था। इस ऋण ने किसानों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान की।
Q4. पट्टा-कबूलियत व्यवस्था लागू होने से किसानों और प्रशासन को क्या लाभ मिला?
उत्तर: पट्टा-कबूलियत व्यवस्था ने किसानों और राज्य के बीच सीधा संबंध स्थापित किया, जिसमें कर की शर्तें लिखित रूप में दर्ज होती थीं। इससे बिचौलियों द्वारा होने वाला शोषण कम हुआ और किसानों को अपने अधिकारों एवं देयताओं की स्पष्ट जानकारी मिली।
Q5. शेरशाह की इस राजस्व व्यवस्था को आगे बढ़ाने और विकसित करने का श्रेय किस मुगल शासक को जाता है?
उत्तर: मुगल सम्राट अकबर ने शेरशाह की राजस्व प्रणाली को न केवल अपनाया, बल्कि उसे और अधिक वैज्ञानिक व संगठित रूप में विकसित किया। दीवान टोडरमल द्वारा किए गए सुधार इसी पर आधारित थे।
