शेरशाह सूरी द्वारा द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना एवं सुदृढ़ीकरण | Sher Shah Suri Second Afghan Empire in Hindi

शेरशाह सूरी ने द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की जो मध्यकालीन भारतीय इतिहास में एक ऐसे सशक्त और दूरदर्शी शासक के रूप में उभरता है, जिसने अपने दृढ़ संकल्प, सैन्य कौशल और प्रभावी प्रशासनिक सोच के बल पर मुगल सत्ता को गंभीर चुनौती दी। यद्यपि उसका शासनकाल बहुत लंबा नहीं रहा, फिर भी उसने जिस दक्षता से द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की, वह उसकी असाधारण नेतृत्व क्षमता का प्रमाण है।

शेरशाह ने ऐसे सुधारों को लागू किया, जिन्होंने न केवल तत्कालीन शासन-व्यवस्था को संगठित किया, बल्कि आने वाले समय में भारतीय प्रशासन की नींव को भी मजबूत बनाया। उसकी नीतियों की उपयोगिता इतनी प्रभावशाली थी कि मुगल शासकों ने भी आगे चलकर इन्हें अपने प्रशासन में अपनाया।

यह लेख शेरशाह सूरी के सत्ता में आने की प्रक्रिया, हुमायूँ के साथ उसके संघर्षों, उसके शासन के विस्तार और उसकी उत्कृष्ट प्रशासनिक प्रणाली को विस्तारपूर्वक समझाता है। इन पहलुओं के माध्यम से स्पष्ट होता है कि शेरशाह का योगदान केवल सैन्य जीतों तक सीमित नहीं था, बल्कि वह एक ऐसे शासक थे जिन्होंने एक संगठित और जनहितकारी शासन की अवधारणा को मजबूत आधार दिया।

परिचय

शेरशाह सूरी मध्यकालीन भारत का वह महान अफगान शासक था जिसने अपने साहस, अद्भुत सैन्य कौशल और श्रेष्ठ प्रशासनिक क्षमता के बल पर उत्तर भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की। उसने कहा था —”अगर भाग्य ने मेरी सहायता की सौभग्य मेरा मित्र रहा तो मैं मुंगलो को सरलता से हिंदुस्तान से बहार निकल दूंगा” शेरशाह ने अपने शब्दों को सत्य सिद्ध किया । शेरशाह ने यह कथन उस समय कहा था जबकि वह मुगल सेना में था और बाबर को चंदेरी के आक्रमण में सहयोग दे रहा था। 

द्वितीय अफगान साम्राज्य का ऐतिहासिक महत्व

हुमायूँ का राज्यकाल लगभग 15 वर्षो के अंतर से दो भागों में बट गया था। इस अन्तरकाल में सूर राजवंश, जिसकी स्थापना महान अफगान सरदार शेरशाह ने की थी, उसने उत्तर भारत के अधिकांश भागो पर अपना अधिकार जमा लिया। यह अन्तरकाल दो कारणों से अधिक महत्पूर्ण है। प्रथम इसिलिए कि अंतिम बार इस काल मे एक अफगानी राजवंश दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान हुआ और इसी केंद्र स्थान से इसने उत्तरी भारत पर शासन संचालित किया। द्वितीय इसिलिए की इस राजवंश ने देश की प्राचीन शासन व्यवस्था को पुनर्जीवित किया और साथ ही उसमें उपयोगी और अवशयक सुधार एवं संस्कार भी किये, जिससे जनता को शांति, सुव्यवस्था, और समृद्धि प्राप्त हुई। यही उत्तम व्यवस्था आगे चलकर हुमायूँ के उत्तराधिकारियों को एक अमूल्य विरासत के रूप में भी उपलब्ध हुई।

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द्वितीय अफगान साम्राज्य का उदय एवं स्थापना

द्वितीय अफगान साम्राज्य का उदय एवं इतिहास अनिवार्यतः दो बातों से जुड़ा है, एक ओर तो हुमायूँ के प्रथम शासनकाल  एवं शेरशाह के उत्थान और शेरशाह के उत्तराधिकारियो के पतन और दूसरी ओर 1555-56 ई0 में हुमायूँ का साम्राज्य पर  पुनः अधिकार कर लेना। पानीपत के प्रथम युद्ध (1526 ई0) में  इब्राहिम लोदी को हराकर बाबर ने जिस मुगल साम्राज्य की नींव डाली थी, और 1527 ई0 में खानवा के युद्ध मे राणा सांगा को पराजित कर जिसे सुदृण किया था, वह स्थाई सिद्ध नही हुआ। हुमायूँ के राज्यारोहण के दस वर्ष के भीतर ही मुंगलो को हिन्दुस्तान से बाहर खदेड़ दिया गया। इसके लिए बड़ी सीमा तक स्वयं बाबर ही उत्तरदायी था।

 शेरशाह को भारत मे द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना के लिये अनेक संघषों का सामना करना पड़ा, और इन संघषों में भारत के तत्कालीन शासक को पराजित करके भारत मे द्वितीय अफगान सम्राज्य की नींव डाली जिसका वर्णन इस आधार पर किया जा सकता है—

शेरशाह और हुमायूँ के बीच संघर्ष

चौसा का युद्ध (26 जून 1539 ई0) 

शेरशाह द्वारा चौसा के युद्ध में पराजय से हुमायूँ की प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा। अनेक मुगल उमरा उसके विरुद्ध हो गए। इनमे कामरान भी था, जो स्वयं नेतृत्व अपने हाथों में लेना चाहता था। यह हुमायूँ को स्वीकार्य नही था। और इस कारण उसे शेरशाह के विरुद्ध कामरान का समर्थन नही मिला। कामरान लाहौर लौट गया और हुमायूँ ने कन्नौज की तरफ कूच किया ताकि शेरशाह पर नियंत्रण किया जा सके। हुमायूँ ने पुनः गंगा नदी पार करके दक्षिणी तट पर शेरशाह  का सामना करने की भूल दोहराई। इस प्रकार उसने अपने लौटने का मार्ग स्वयं अवरुद्ध कर लिया था। वर्षा के कारण टोपे पानी मे डूब गई और जब मुगल सैनिक उन्हें अन्य स्थान पर ले जाने का प्रयास कर रहे थे, तभी अफगानों ने आक्रमण कर दिया।

 कन्नौज का युद्ध(17 मई 1540ई0) 

 कन्नौज के युद्ध में मुंगलो की पराजय हुई। अफगानों की इस विजय ने शेरशाह की प्रभुता को दृढ़तापूर्वक स्थापित कर दिया और अगले 15 वर्षो तक हुमायूँ को देश से निष्कासित रहना पड़ा।

शेरशाह का राज्याभिषेक

 शेरशाह की कन्नौज विजय ने दिल्ली और आगरा पर अधिकार करने के लिए उसका मार्ग प्रशस्त कर दिया। 10 जून 1540 ई0 को हिन्दुस्तान के पादशाह के रूप में उसका विधिवत राज्याभिषेक किया गया । इस प्रकार भारत मे  द्वितीय अफगान साम्राज्य की नींव पड़ी।

शेरशाह की प्रारंभिक समस्याएं

शेरशाह ने हिन्दुस्तान की बादशाहत तो प्राप्त कर ली थी लेकिन उसके नवोदित साम्राज्य के सामने अनेक समस्याएं थी। इनमे सबसे गंभीर समस्या यह थी कि मुंगलो के कभी भी लौट आने का खतरा था। इसके अतिरिक्त भारत के  अनेक अमीर क्षेत्रों पर अधिकार करना बाकी था। अपने अफगान समर्थकों को जागीरे और ओहदे प्रदान करने के लिए आवश्यक हो गया कि विजय और साम्राज्य विस्तार का सिलसिला जारी रखा जाय। अफगानों की आकांक्षाओं को सही दिशा प्रदान करने और पादशाह की संकल्पना को एक नया अर्थ एवं स्थायित्व प्रदान करने की आवश्यकता थी।

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साम्राज्य को स्थायित्व देने के लिए किए गए कार्य

 शेरशाह ने साम्राज्य को स्थायित्व देने  के लिए अनेक कार्य किये।

उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत पर नियंत्रण

पहली समस्या से निपटने के लिए आवश्यकता थी कि उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त पर नियंत्रण स्थापित किया जाय। क्योंकि इस प्रान्त में निवास करने वाली जातियाँ खोखर और बलूची थी और ये जातियाँ कभी भी मुंगलो की सहायता करके शेरशाह के लिए परेशानी खडी कर सकती थी। इसिलिए शेरशाह ने सबसे पहले इसी क्षेत्र पर अपना प्रभवी नियंत्रण स्थापित करने की योजना बनाई।

खोखरों पर विजय

यद्यपि हुमायूँ को भरत से बहार खदेड़ दिया गया था और मुंगलो को इस क्षेत्र से बहार रखने के लिए बोलन और पेशावर के इलाके शेरशाह ने अपने नियंत्रण में ही रखे थे। सारंग खां के नेतृत्व में खोखर मुंगलो के प्रति मैत्री भाव रखते थे। शेरशाह द्वारा उनके इलको पर हमला किया गया, गांवों को आग लगा दी गई और विरोध करने वालो को मौत के घाट उतार दिया। इस कारण खोखर, मुंगलो को कोई सहायता न दे सके, किन्तु इन्होंने अफगानों को अपना शासक स्वीकार नहीं किया। रोहताश दुर्ग का निर्माण करके इसकी सुरक्षा के लिए 5000 सैनिक तथा हैवत खां और खवास खां जैसे योग्य सेनापतियों की नियुक्ति की।

बलूचियों पर नियंत्रण

उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के दक्षिणी भाग में बलूची बसे हुए थे। जब शेरशाह शुशाब तक पहुंचा तो बलूचियों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार उत्तरी सिंध का प्रदेश शेरशाह के नियंत्रण में आ गया, किन्तु बलूचियों को अधिक समय तक दबा कर नही रखा जा सका। शेरशाह की अधीनता स्वीकार करने वाले अन्य अफगान कबायलियो ने शिकायत की कि बलूची उन्हें सता रहे है। शेरशाह ने अपने भतीजे मुबारक खान को इन समस्याओं को सुलझाने का दायित्व सौंपा। बलूचियों ने विद्रोह कर दिया और मुबारक खान को मार डाला। तब हैवात खां को विद्रोह को कुचलने के लिए भेजा गया। 1543 ई0 में उसने मुल्तान पर अधिकार कर लिया और फतह खां को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया गया। विद्रोही सरदारों को कड़ी सजा  दी गई। किन्तु कर वसूली के मामले में शेरशाह ने नरमी बरती और राज्य की मांग को घटाकर 1/4 भाग कर दिया। किसानों को छूट दी गई कि वे चाहे तो  फसल  का बटबारा कर ले। अनेक महत्वपूर्ण सरदारों को इस क्षेत्र में नियुक्त किया गया, किन्तु बाद में जब उनमे मतभेद होने लगा तो हैबत खान नियाजी को वहाँ का सर्वेसर्वा बना दिया गया।

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निष्कर्षत

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि शेरशाह में एक उच्च कोटि के  सैनिक तथा सेनापति के गुण विद्यमान थे। वह बड़ा वीर, साहसी, तथा अदम्य उत्साही था। भीषण से भीषण विपत्ति आने तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के उत्पन्न हो जाने पर भी वह विचलित नही होता था। जिसने न सिर्फ बिखरे हुए अफगानों को मुगलो के विरूद्ध एकीकृत किया बल्कि अपनी योग्यता के बल पर भारत मे द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना करने में सफल हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में उसने ऐसे मानक स्थापित किए जो अकबर के लिए पद-प्रदर्शक बने। 

FAQ / PAQ (People Also Ask)

Q1. शेरशाह सूरी ने द्वितीय अफ़गान साम्राज्य की स्थापना कब की?

उत्तर: 1540 ईस्वी में कन्नौज के निर्णायक युद्ध में हुमायूँ को हराने के बाद शेरशाह सूरी ने अपना स्वतंत्र और प्रभावी शासन स्थापित किया। इसी घटना को इतिहासकार द्वितीय अफ़गान साम्राज्य की औपचारिक शुरुआत मानते हैं। इस विजय के बाद उन्होंने तेजी से प्रशासनिक ढाँचा खड़ा किया और पूरे उत्तर भारत पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।

Q2. शेरशाह और हुमायूँ के बीच किन प्रमुख युद्धों में संघर्ष हुआ?

उत्तर: शेरशाह सूरी और हुमायूँ के बीच शक्ति संघर्ष मुख्यतः दो महत्वपूर्ण युद्धों में सामने आया।
पहला, 1539 का चौसा युद्ध, जिसमें हुमायूँ को करारी हार मिली और शेरशाह की सैन्य क्षमता पूरे उत्तरी भारत में चर्चा का विषय बन गई।

दूसरा, 1540 का कन्नौज युद्ध, जिसने राजनीतिक स्थिति पूरी तरह बदल दी और हुमायूँ को भारत छोड़कर निर्वासन में जाने पर मजबूर किया। इन दोनों युद्धों ने भारतीय इतिहास की दिशा बदल दी।

Q3. शेरशाह ने साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने के लिए क्या कदम उठाए?

उत्तर: शेरशाह सूरी ने अपने शासन को मजबूत और संगठित बनाने के लिए कई सुधार लागू किए।
उन्होंने सीमाओं की रक्षा हेतु चौकियाँ और किले स्थापित किए। प्रशासनिक ढाँचे को स्पष्ट और प्रभावी बनाने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की नियुक्ति की। सेना में अनुशासन लाने के लिए दाग और हुलिया जैसी व्यवस्थाएँ विकसित कीं, जिससे सैनिकों की पहचान और गुणवत्ता सुनिश्चित की जा सके। उन्होने भूमि का सटीक मापन कराकर राजस्व प्रणाली को व्यवस्थित किया, जिससे आम किसानों पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़े। इसके साथ ही, उन्होंने सड़कों, पुलों और सरायों का जाल बिछाया, जिसने व्यापार और प्रशासन दोनों को नई गति दी।

Q4. शेरशाह का साम्राज्य क्यों महत्वपूर्ण माना जाता है?

उत्तर: शेरशाह सूरी का शासनकाल छोटा जरूर था, परंतु उनके द्वारा किए गए सुधारों ने भारतीय प्रशासनिक परंपरा को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने जो नीतियाँ लागू कीं—जैसे कि व्यवस्थित भूमि सर्वेक्षण, राजस्व संग्रहण की वैज्ञानिक पद्धति, अधिकारी चयन में कठोरता, और दूर-दराज क्षेत्रों को जोड़ने वाली सड़कें—ये आगे चलकर मुगल शासन की रीढ़ बन गईं।

इसी कारण उनका साम्राज्य केवल एक राजनीतिक सत्ता नहीं, बल्कि एक प्रभावशाली प्रशासनिक मॉडल के रूप में इतिहास में दर्ज है।

Q5. शेरशाह सूरी की मृत्यु कैसे हुई?

उत्तर: 1545 ईस्वी में शेरशाह सूरी अपनी सेना के साथ कालिंजर के दुर्ग पर चढ़ाई कर रहे थे। किले पर कब्ज़ा करने की रणनीति के दौरान बारूद का एक बड़ा भंडार अचानक विस्फोटित हो गया। इस गंभीर हादसे में शेरशाह बुरी तरह घायल हुए और थोड़ी ही देर बाद उनकी मृत्यु हो गई। उनका अंत भले ही अचानक हुआ, लेकिन उनके द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढाँचे का प्रभाव देर तक बना रहा

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