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प्रश्न:— मौर्य प्रशासन के विशिष्ट तत्वों का निरूपण कीजिए। क्या मौर्य राज्य एक कल्याणकारी राज्य था? विवेचना कीजिए।
अथवा
भारतीय राज्य प्रशासन के विकास के इतिहास में मौर्य काल कैसे एक युगांतकारी घटना है?
अथवा
कौटिल्य एवं मेगस्थनीज के आधार पर मौर्य प्रशासन प्रबंध का विवरण दीजिए।

परिचय:
वास्तविक अर्थो में मौर्य युग मे ही प्रथम बार राजनीतिक एकता (राजशक्ति) स्पष्ट रूप से प्रकट होती है और उसके कुशल प्रशासन के कारण ही आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय राज्य ने सर्वप्रथम अनेकता में एकता के बीज मौर्य युग मे ही बोये थे। मौर्य प्रशासन के विषय मे जानकारी का मुख्य स्रोत कौटिल्य कृत ‘अर्थशास्त्र’ है, इसके साथ ही मेगस्थनीज की ‘इण्डिका’ एवं अशोक के शिलालेखों से भी इस विषय मे महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। प्रशासनिक केन्द्रीकरण एवं विस्तृत नौकरशाही जैसी विशेषताओं के बावजूद मौर्य शासन व्यवस्था का परम लक्ष्य प्रजा का कल्याण था, जैसा कि अर्थशास्त्र के निम्न उद्वरण से स्पष्ट होता है– “प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है और प्रजा की भलाई में ही उसकी भलाई है।”
मौर्यो की प्रशासनिक व्यवस्था को ठीक प्रकार से समझने के लिए उसे निम्नलिखित संदर्भो में व्यक्त किया जा सकता है—–
राजा एवं केन्द्रीय प्रशासन
मौर्य साम्राज्य का सर्वोच्च अधिकारी स्वंय सम्राट था और सम्पूर्ण शासन तंत्र उसी की आज्ञा से संचालित होता था। कौटिल्य ने राज्य के सप्त अंगों में राजा को सर्वोच्च स्थान देते हुए राज शासन को धर्म, व्यवहार एवं चरित्र (लोकाचार) से भी ऊपर माना है। इस प्रकार देखा जाय तो राजा कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका तीनो का प्रमुख एवं सर्वोच्च अधिकारी था। अर्थशास्त्र के अनुसार “राजा ही राज्य है” जबकि अशोक के अभिलेखों के अनुसार “राजतंत्र का प्रथम राजा ही है” जिसका आधार पैतृक निरंकुशवाद है, स्तम्भी व्याख्या के अनुसार राजा, सेना, वित्त, सामान्य प्रशासन, न्यायिक विधान एवं वैदेशिक मामलों का प्रथम प्रधान था, परन्तु यह प्रधानता गणतंत्रवादी राज्य के संविधान प्रमुख से भिन्न थी क्योकि वह निरंकुश था। इस प्रकार मौर्य प्रशासन अत्याधिक केंद्रीकृत था। जिसमे राजा केंद्रीय धुरी के समान था। यही कारण है कि कौटिल्य ने शासनतंत्र की सफलता के लिए शासक की व्यक्तिगत योग्यता एवं कर्मठता पर विशेष बल दिया है।
मंत्रिण और मंत्रिपरिषद
कौटिल्य का दृढ़मत था कि राजत्व (प्रभुता) बिना सहायता के सम्भव नही है, अतः राजा को सचिवों की नियुक्ति करनी चाहिए और उनसे परामर्श (मंत्रणा) लेनी चाहिए। अर्थशास्त्र के अनुसार राजा को चाहिए कि वह राजकुमारों पर विशेष ध्यान दे क्योकि वे अपने ही जनक को दीमक की तरह निगल जाते है। अर्थशास्त्र की इस व्याख्या के बावजूद युवराज ही राज्य के कार्य मे राजा की सहायता करता था।
राजा की सहायता के लिए व्यक्तिगत रूप से पुरोहित जैसा पद था जबकि संस्थागत रूप से मंत्रिण: एवं मंत्रिपरिषद जैसी संस्थाए थी जिनके कार्य क्रमशः आकस्मिक एवं आवश्यक मामले थे। मंत्रिण: में 3 या 4 सदस्य थे जो युवराज, पुरोहित, सन्निधता और सेनापति। इनकी नियुक्ति आमात्य वर्ग से भली-भांति जांच (उपधा परीक्षण) के पश्चात ही की जाती थी।
मंत्रिण: के अतिरिक्त एक मंत्रिपरिषद का उल्लेख भी अर्थशास्त्र एवं अशोक के शिलालेखों (‘परिषा’ के रूप में) में मिलता है। कौटिल्य ने बडी मंत्रिपरिषद का समर्थन करते हुए राजा को उसके बहुमत के अनुसार कार्य करने की सलाह दी है परन्तु राजा इस सलाह को मानने के लिए वाध्य नही था। अशोक के शिलालेखों के आधार पर अनुमान होता है कि मंत्रिपरिषद अजाज्ञाओ पर विचार-विमर्श करने के साथ ही उन पर आवश्यकतानुसार संशोधन का सुझाव भी देती थी।
केंद्रीय शासन और प्रशासनिक विभाग

शासन की सुविधा के लिए केंद्रीय शासन कई विभागों में बटा (विभाजित) हुआ था, यह विभाग ‘तीर्थ’ कहलाते थे। प्रत्येक विभाग का एक सर्वोच्च पदाधिकारी होता था जिसे ‘आमात्य’ कहते थे। अर्थशास्त्र में ऐसे 18 आमात्यों का उल्लेख मिलता है जिनमें पुरोहित, सेनापति, समाहर्ता,युवराज आदि प्रमुख थे। राज्य के आमात्यों या सर्वोच्च पदाधिकारियों का उल्लेख यूनानी लेखको ने सातवीं जाति के रूप में किया। ये पदाधिकारी अपने कनिष्ठो को निर्देशित तथा राजाज्ञाओं के अनुरूप नियंत्रित करते थे एवं आवश्यकता पड़ने पर सर्वोच्च सत्ता को योजनाओ के निर्माण से भी लाभान्वित कराते थे।
आमात्यों के अधीन विभिन्न उपविभागों के अधिकारी ‘अध्यक्ष’ कहलाते थे। अर्थशास्त्र में ऐसे 26 अध्यक्षो का उल्लेख मिलता है। इनमे प्रमुख थे- कोषाध्यक्ष, सीताध्यक्ष, पण्याध्यक्ष आदि। ‘अध्यक्ष’ राज्य के दूसरी श्रेणी के अधिकारी थे, जिन्हें स्ट्रेबो ने ‘मजिस्ट्रेट’ के नाम से सम्बोधित किया है। अशोक के अभिलेखों में भी धम्ममहामात्र, राजुक, एवं युक्त आदि पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है। इनमे ‘धम्ममहामात्र’ की नियुक्ति अशोक द्वारा नवीन पद के रूप में कई गई थी।
प्रांतीय शासन व्यवस्था
प्रशासनिक सुविधा के लिए मौर्य प्रशासन को संभवतः पांच प्रांतों में विभक्त किया गया था- (1) उत्तरापथ (2) दक्षिणापथ (3) अवन्ति राष्ट्र (4) कलिंग प्रान्त (5) प्राची। प्रान्तों के प्रमुख के रूप में नियुक्ति के दो आधार थे—(1) बड़े प्रान्तों एवं सीमावर्ती प्रान्तों का प्रमुख राजकुल से संबंधित व्यक्ति ही हो सकता था। जिन्हें अशोक के अभिलेखों में ‘कुमार’ या ‘आर्यपुत्र’ कहा गया है। जबकि दूसरे प्रकार के छोटे प्रांतों में स्थानीय एवं प्रभावशाली व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाता था। रोमिला थापर का मत है कि प्रान्तों में भी शासक की सहायतार्थ एक मंत्रिपरिषद होती थी, जो कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद की तुलना में अधिक स्वतंत्र थी।
जिले का प्रशासन
मौर्यकालीन प्रान्त अनेक जिलो में विभक्त थे, जो कि ‘विषय’ या ‘आहार’ कहलाते थे। इसके सारे अधिकारी समाहर्ता के नियंत्रण में कार्य करते थे। जिले में अनेक स्थानीय होते थे, जो स्थानिक नामक अधिकारी के अधीन थे। स्थानिक के अधीन अनेक ‘गोप’ होते थे, जो कि 10 ग्राम के ऊपर शासन करते थे।
ग्राम प्रशासन
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थे। ग्राम का शासन ‘ग्राम सभा’ के द्वारा होता था और इसका प्रमुख ‘ग्रामणी’ कहलाता था। अर्थशास्त्र के अनुसार यह अवैतनिक था और जनता द्वारा निर्वाचित होता था।अर्थशास्त्र में ‘ग्राम वृद्ध परिषद’ का उल्लेख मिलता है। उसका मुख्य कार्य राजस्व वसूली एवं स्थानीय समस्याओ को निबटाना था। वह अपराधों की रोकथाम भी करता था। ग्रामीणों के कार्यो पर ‘गोप’ नियंत्रण रखते थे।
नगर प्रशासन
मेगस्थनीज के वर्णन से मौर्यकालीन नगर प्रशासन का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। उसके अनुसार नगर प्रशासन 6 समितियों द्वारा संचालित होता था। प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे और प्रत्येक का कार्य निश्चित था यथा– औद्योगिक मामले, वैदेशिक मामले, जनगणना, कालाबाजारी और बिक्री कर सम्बन्धी मामले देखती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में किसी समिति का उल्लेख न होकर ‘नगराध्यक्ष’ का उल्लेख मिलता है। विद्वानों के अनुसार यह आधुनिक मजिस्ट्रेट के समान था और उक्त आयोग इसी के संरक्षण में कार्य करता होगा।
पुलिस एवं गुप्तचर व्यवस्था
आंतरिक सुरक्षा और अपराध तथा औराधियो पर नियंत्रण रखने के लिए राज्य ने पुलिस एवं गुप्तचरों की भी व्यवस्था की थी। दण्डपाल पुलिस विभाग का प्रधान होता था, जो अपराधियो पर नियंत्रण रखता था। नगर में शांति-व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी नगराध्यक्ष की थी। पूरे साम्राज्य में गूणपुरुषो या गुप्तचरों का जाल सा विछा था। ये राज्य में होने वाली प्रत्येक घटना की सूचना राजा तक पहुचाते थे। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख मिलता है। (1) संस्था– ये एक ही स्थान पर रहकर कार्य करते थे। (2) संचरा— ये विभिन्न भेषो में जगह-जगह घूमकर जानकारी एकत्रित करते थे।
सैन्य प्रशासन
यूनानी विवरणों में मौर्यो की विशाल सेना का उल्लेख मिलता है। कौटिल्य और मेगस्थनीज दोनो ही सैन्य व्यवस्था का उल्लेख करते है। मेगस्थनीज के द्वारा सैन्य प्रशासन का विवरण दिया गया है। सेना का प्रशासन भी 6 समितियों द्वारा ही किया जाता था। यह सेना के भिन्न-भिन्न विभागों यथा– पैदल, अश्व, हाथी, रथ, नौ सेना तथा रसद एवं परिवहन का प्रबंध संभालती थी। अर्थशास्त्र में सैनिको के प्रशिक्षण तथा अभ्यास, कर्तव्यों एवं दायित्वों तथा वेतन आदि के संबंध में व्यापक नियम मिलते है, जो कि सैन्य संगठन के प्रति मौर्यो की जागरूकता एवं सक्रियता को प्रदर्शित करते है।
न्याय प्रशासन
सम्राट न्याय प्रशासन का सर्वोच्च था। मौर्यकाल में न्यायलयों की एक क्रमिक श्रृंखला विद्यमान थी। इसमें सबसे निचले स्तर पर ग्रामो में ग्राम पंचायतें और उसके ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख और जनपद के न्यायालय थे। राजा सर्वोच्च न्यायाधीश था, जिसका निर्णय सर्वमान्य और अन्तिम होता था। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के न्यायलयों का उल्लेख मिलता है—(1) धर्मस्थीय न्यायालय— ये दीवानी न्यायलयों को देखते थे। (2) कंथक शोधक न्यायालय–ये फौजदारी मामलों या आपराधिक मामलों को देखते थे। मेगस्थनीज एवं कौटिल्य दोनो ही कठोर दण्ड का विधान का उल्लेख करते है। दण्ड अधिकतर आर्थिक थे परन्तु मृत्यु दण्ड का भी प्रचलन था क्योंकि महान अहिंसावादी अशोक ने भी मृत्यु दण्ड को समाप्त नही किया अपितु उसके स्वरूप में थोड़ा परिवर्तन किया।
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राजस्व व्यवस्था
विशाल मौर्य साम्राज्य के संचालन हेतु अत्यधिक धन की आवश्यकता थी, अतः इस युग मे पहली बार सही अर्थों में राजस्व प्रणाली की रूपरेखा तैयार की गई, जिसके प्राप्ति प्रामाण अर्थशास्त्र में मिलते है। इसासे विदित होता है कि भूमि कर राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। इसके साथ ही वनों,खानों एवं भूमि से उत्पन्न होने वाली दूसरी वस्तुओ पर भी कर लगाये जाते थे। व्यापारिक वस्तुओ पर लगने वाला आयात एवं निर्यात कर, चुंगी, नगरो में उत्पन्न विभिन्न वस्तुओं से प्राप्त कर आदि से बई सरकारी आय प्राप्त होती थी। अपराधियो से प्राप्त जुर्माने भी राजकीय आय का प्रमुख स्रोत था। पतंजलि के अनुसार मौर्यकाल में धन के लिए देवताओ की प्रतिमाएँ बनाकर बेची जाती थी। यद्यपि राजकीय आय का एक बड़ा भाग प्रशासन में ही खर्च हो जाता था लेकिन इसके बावजूद मौर्य शासको ने जनकल्याण की दृष्टि से अनेक कार्य किये, अशोक के समय मे तो ऐसे कार्यो में अत्यधिक वृद्धि हुई और मौर्य शासन लोककल्याण का शासन बन गया।
लोककल्याणकारी कार्य और मौर्य राज्य का स्वरूप

यहाँ विशेष महत्वपूर्ण बात यह है कि मौर्य प्रशासन में निरंकुशता के लक्षण विद्यमान होते हुए भी उसमे लोकोपकारी शासन व्यवस्था की कई विशेषताएं भी दृष्टिगोचर होती है– राजमार्गो का निर्माण, वृक्षारोपण, सिंचाई के संसाधनों का विकास (रेवतक एवं उर्जयन्त पर्वत को रोककर सौराष्ट्र के राज्यपाल पुष्पगुप्त वैश्य द्वारा सुदर्शन झील का निर्माण एवं अशोक द्वारा अपने यवन राज्यपाल तुसाष्प द्वारा इससे विभिन्न जल धाराओं का निर्माण) दासो एवं दासियों के साथ सदव्यवहार तथा छठे शिलालेख में अशोक द्वारा सम्पूर्ण प्रजा को अपना पुत्र कहा जाना, तथा गिरनार अभिलेख में “जियो और जीने दो” का सिद्धांत देना तथा लोकमत की प्राप्ति के लिए स्वयं में भ्रमण करना तथा नगर विहालको एवं धम्ममहामात्रो को यह निर्देश देना की उनके द्वारा किये जाने वाले न्याय राग, द्वेष तथा सम्प्रदाय से मुक्त होना चाहिए, निःसंदेह मौर्य साम्राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को गुप्तचर व्यवस्था के द्वारा कुशल शासन देने के नाम पर व्यक्ति के जीवन मे जो हस्तक्षेप किया गया था उसके परिणामस्वरूप मौर्य प्रशासन में व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रशासनिक कुशलता के द्वारा छीन ली गयी थी। परन्तु स्वतंत्रता जो कि आधुनिक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा है, उसको स्थापित करने वाला प्राचीनतम राजवंश मौर्य साम्राज्य ही था क्योंकि इस युग मे जहां पर गणतंत्र एवं राजतंत्र आपस में संघर्षरत थे, एकता का अभाव था तथा समाज ऊँच-नीच, छुआ-छूत इत्यादि में बटा हुआ था। उस समय मौर्य प्रशासनिक कुशलता के कारण ही समाज मे समरसता स्थापित की जा सकी और यह समरसता अशोक के काल मे भी बनी रही क्योंकि शांति एवं समृद्धि के दौर से गुजरकर ही कोई राज्य विश्व मे धम्म विजयी राज्य होने का प्रयत्न कर सकता है।
निष्कर्ष
मौर्य काल का प्रशासन अत्यंत संगठित और केंद्रीकृत था, लेकिन इसका मूल उद्देश्य जनता के हितों की रक्षा और उनके कल्याण को सुनिश्चित करना था। इस शासन व्यवस्था ने भारतीय इतिहास में ऐसी नीतियाँ प्रस्तुत कीं, जिन्होंने आगे चलकर आधुनिक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को आकार दिया।
PAQ (People Also Ask)
प्रश्न 1. मौर्य शासन व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ कौन-कौन सी थीं?
उत्तर: मौर्य शासन व्यवस्था भारतीय इतिहास में अत्यंत संगठित और केंद्रीकृत मानी जाती है। शासन की बागडोर सम्राट के हाथों में होती थी, जो न्याय, सुरक्षा और जनकल्याण से जुड़े निर्णयों का अंतिम प्राधिकारी था। प्रशासनिक ढाँचा कई स्तरों पर विभाजित था — केंद्र, प्रांत, जनपद और ग्राम — जिन पर योग्य अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वित्त, सैन्य संगठन, गुप्तचर विभाग और कानून व्यवस्था से संबंधित विस्तृत दिशा-निर्देश दिए गए हैं। मौर्य शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें शासन का मुख्य उद्देश्य जनता का कल्याण था, न कि केवल शक्ति का विस्तार।
प्रश्न 2. मौर्य प्रशासन को अन्य प्राचीन भारतीय राजतंत्रों से भिन्न क्यों माना जाता है?
उत्तर: मौर्य प्रशासन अपनी केंद्रीकृत और वैज्ञानिक व्यवस्था के कारण अन्य राजतंत्रों से अलग था। जहाँ पूर्ववर्ती राज्यों में स्थानीय शासकों के पास अधिक अधिकार होते थे, वहीं मौर्य शासन में सभी नीतियाँ सम्राट के नियंत्रण में थीं। प्रत्येक प्रांत का संचालन राजकुमार या विश्वसनीय अधिकारी करते थे, जो सीधे केंद्र को जवाबदेह रहते थे। गुप्तचर व्यवस्था, न्याय प्रणाली और कर-संग्रह को पूरे साम्राज्य में एक समान ढाँचे में व्यवस्थित किया गया था। साथ ही, जनहित के कार्यक्रमों और सामाजिक सुधारों ने इस प्रशासन को विशिष्ट पहचान दी।
प्रश्न 3. सम्राट अशोक ने प्रशासन को कल्याणकारी बनाने के लिए क्या उपाय किए?
उत्तर: सम्राट अशोक ने शासन में नैतिकता और मानवीय दृष्टिकोण को प्रमुख स्थान दिया। उन्होंने धम्म नीति को अपनाया, जिसके माध्यम से अहिंसा, सहिष्णुता, करुणा और सदाचार को प्रशासन का आधार बनाया गया। अशोक ने धम्म महामात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति की, जो नागरिकों के नैतिक और सामाजिक हितों की देखरेख करते थे। उन्होंने अस्पतालों, कुओं, सड़कों और विश्राम गृहों का निर्माण कराया ताकि आमजन को सुविधा मिल सके। मनुष्य ही नहीं, पशुओं की भलाई के लिए भी विशेष प्रावधान किए गए। इस कारण उनका शासन भारत के इतिहास में प्रथम कल्याणकारी शासन के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न 4. मौर्य शासन में केंद्रीय, प्रांतीय और स्थानीय प्रशासन की संरचना कैसी थी?
उत्तर: मौर्य शासन का प्रशासनिक ढाँचा तीन स्तरों में विभाजित था — केंद्रीय, प्रांतीय और स्थानीय। केंद्र में सम्राट सर्वोच्च अधिकारी था, जिसके अधीन मंत्रिपरिषद नीति-निर्माण और कार्यान्वयन में सहायता करती थी। प्रत्येक प्रांत का संचालन किसी राजकुमार या वरिष्ठ अधिकारी द्वारा किया जाता था, जो राज्य की नीतियों को क्षेत्रीय स्तर पर लागू करता था। स्थानीय प्रशासन में ग्राम और नगर स्तर पर गोप, ग्रामिक और युक्त जैसे अधिकारी जनता के सीधे संपर्क में रहकर कार्य करते थे। इस सुव्यवस्थित व्यवस्था ने शासन को प्रभावी और उत्तरदायी बनाया।
प्रश्न 5. मौर्य प्रशासन को कल्याणकारी राज्य क्यों कहा जाता है?
उत्तर: मौर्य प्रशासन में शासन का उद्देश्य केवल सत्ता या विस्तार नहीं, बल्कि जनता की समृद्धि और सुख-सुविधा सुनिश्चित करना था। विशेषकर सम्राट अशोक के शासन में कल्याणकारी नीतियाँ अपनाई गईं, जिनसे समाज में समानता, दया और सहयोग की भावना को बढ़ावा मिला। उन्होंने धर्मशालाओं, चिकित्सालयों और पशु-आश्रयों की स्थापना कर मानवीय संवेदनाओं को शासन का हिस्सा बनाया। कर व्यवस्था भी ऐसी थी कि वह जनता पर अत्यधिक भार न डाले। इस प्रकार मौर्य शासन राजनीतिक स्थिरता के साथ-साथ सामाजिक और नैतिक विकास का भी प्रतीक बन गया।
