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भारत में इंडो-इस्लामिक स्थापत्य की प्रारंभिक नींव कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल में पड़ी। उनके द्वारा निर्मित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद, कुतुब मीनार और अढ़ाई दिन का झोपड़ा भारतीय तथा इस्लामी स्थापत्य शैलियों के अद्वितीय समन्वय का उदाहरण हैं।

परिचय:–
क़ुतुबुद्दीन ऐबक सिर्फ एक सक्षम सेनापति नहीं था, बल्कि उसे कला और स्थापत्य का गहरा शौक था। अतः ऐबक ने स्थापत्य कला के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। ऐबक ने अपने अल्प शासनकाल में कई भव्य इमारतों का निर्माण करवाया, जिनमें कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद, क़ुतुब मीनार और अढाई दिन का झोपड़ा प्रमुख हैं। इन इमारतों में भारतीय तथा इस्लामी स्थापत्य शैलियों का अनूठा संगम दिखाई देता है।
कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद:-

सन 1192 ई0 में तराइन के द्वितीय युद्ध मे पृथ्वीराज चौहान तृतीय को हराने के बाद उसके किले रायपिथौरा पर अधिकार कर लेने के बाद वहाँ पर कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने करवाया। तुर्को द्वारा भारत मे निर्मित यह प्रथम मस्जिद थी। इतिहासकार जॉन मार्शल के अनुसार इस मस्जिद का निर्माण 27 निर्माणधीन जैन मंदिरों के ध्वंसावशेष पर किया गया। मस्जिद में लगी जाली, स्तम्भ एवं दरवाजे मंदिरों के ही अवशेष थे। इस मस्जिद में सर्वप्रथम इस्लामी स्थापत्य कला की मजबूती एवं सौंदर्य जैसी विशेषताओ को उभारा गया है। इल्तुतमिश एवं अलाउद्दीन खिलजी के समय मे मस्जिद के क्षेत्र को बढ़ाया गया था। इस मस्जिद की सर्वोत्कृष्ट विशेषता उसका मकसुरा एवं इसके साथ जुड़ा किब्ला लिवान है। यह मस्जिद 212 फुट लंबे तथा 150 फुट चौड़े समकोणनुमा चबूतरे पर स्थित है। इन्डो-इस्लामिक शैली में निर्मित स्थापत्यकला का यह पहला उदाहरण है जिसमें स्प्ष्ट हिन्दू प्रभाव दिखाई देता है।
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कुतुब मीनार:-

क़ुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा सन 1206 ई0 में इसका निर्माण कार्य प्रारंभ करवाया गया। क़ुतुबुद्दीन ऐबक इस इमारत की चार मंजिल का निर्माण करवाना चाहता था। परन्तु एक मंजिल के निर्माण के बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। बाद में इसकी शेष मंजिलों का निर्माण इल्तुतमिश ने करवाया, इल्तुतमिश ने इसकी तीन मंजिलो का निर्माण करवाया (अब तक कुल मंजिल चार )। सन 1369 ई0 में आकाशीय बिजली गिरने से मीनार की ऊपरी मंजिल क्षतिग्रस्त हो गई थी तब फ़िरोज़शाह तुगलक ने क्षतिग्रस्त मंजिल की मरम्मत करवाई एवं एक नई मंजिल का निर्माण करवाया (अब तक कुल मंजिल पाँच)। सन 1505 ई0 में भूकंप की वजह से मीनार को क्षति पहुँची बाद में सिकंदर लोदी ने इसकी मरम्मत करवाई । पाँच मंजिलों में बनी यह इमारत 71•4 मीटर ऊँची थी। क़ुतुब मीनार का निर्माण ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में कराया गया था। यह मीनार दिल्ली से 12 मील की दूरी पर महरौली गांव में स्थित है। प्रारम्भ में इस मस्जिद का प्रयोग अँजान (नमाज के लिए बुलाना) के लिए होता था पर कालान्तर में इसे कीर्ति स्तम्भ के रूप मन जाने लगा।
पर्सी ब्राउन का मानना है कि “क़ुतुब मीनार का निर्माण विश्व के समक्ष इस्लाम की शक्ति के उदघोष के लिए किया गया था। यह न्याय, प्रमुखता तथा धर्म के स्तम्भ का प्रतीक थी। उन्होंने इसे पूर्व तथा पश्चिम पर अल्लाह की छाया का प्रतीक माना।” क़ुतुब मीनार का निचला भाग लगभग 15 मीटर है जो ऊपर की और जाकर मात्र 3 मीटर रह जाता है। क़ुतुब मीनार की पहली तीन मंजिले पत्थर से निर्मित है, जिनका बाहरी आवरण लाल है। ऊपर की दो मंजिलो में अन्दर से लाल पत्थर का प्रयोग किया गया है एवं बाहर से सफेद पत्थर का आवरण है। इस मीनार में प्रवेश करने के लिए उत्तर की दिशा में एक दरवाजा बना हुआ है। ऊपर चढ़ने के लिए मीनार में 375 सीढ़िया बनाई गई है।
अढाई दिन का झोपड़ा:-

“अढाई दिन का झोपड़ा” के इतिहास को जब मैने जानना चाहा तो अनेक ऐतिहासिक पुस्तको एवं लेखों को पढ़ने एवं समझने के बाद ऐसा लगा कि यह इमारत तुर्को द्वारा निर्मित होने से पहले चौहान वंश की धरोहर रही थी। अढाई दिन का झोपड़ा नामक इमारत का इतिहास इस प्रकार से है—-
कभी चौहान वंश की धरोहर थी,अढाई दिन का झोपड़ा:-
भारत मे तुर्को की सत्ता की स्थापना के समय उत्तर भारत में अनेक राजपूत वंशो का शासन था। जिसमे एक महान वंश चौहन वंश भी था, इस वंश के महान शासक विग्रहराज चतुर्थ,जिसे विशल देव के नाम से भी जाना जाता था। ये शाकंभरी के चौहान वंश से संबंधित थे। विग्रहराज चतुर्थ ने अजमेर में एक संस्कृत महाविद्यालय का निर्माण करवाया था। यह महाविद्यालय चौकोर आकर में बनाया गया था और इस भवन के प्रत्येक कोने पर एक गुम्बद के आकार का मंडप बना था। यही पर एक मन्दिर का निर्माण भी कराया गया था। जो सरस्वती देवी को समर्पित है। इस भवन पर हरिकेल नाटक भी उत्कीर्ण है। इस भवन के निर्माण को देखने पर ऐसा प्रतीत होता था कि इसके निर्माण में हिन्दू और जैन वास्तुकला की विशेषतायें शामिल हैं। कुछ इतिहासकारो का मानना है कि संस्कृत महाविद्यालय जैनियों का महाविद्यालय था। यहां के स्थानीय लोगो का मानना है कि सेठ वीरम देव ने पंच कल्याण मनाने के लिये इस महाविद्यालय का निर्माण करवाया था। सन 1192 ई0 में तराइन के द्वितीय युद्ध मे मुहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वीराज चौहान तृतीय को पराजित करने के बाद ऐबक ने इस मस्जिद (अढाई दिन का झोपड़ा) का निर्माण करवाया था।
दिल्ली सल्तनत की धरोहर है, अढाई दिन का झोपड़ा:-
क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने अढाई दिन का झोपड़ा,जो वास्तव में एक मस्जिद है का निर्माण राजस्थान के अजमेर में करवाया था। पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद एक बार मुहम्मद गोरी अजमेर के रास्ते से गुजर रहा था, तो उसे रास्ते मे अनेक मंदिर तो दिखाई दिये लेकिन कोई मस्जिद नजर नही आई। इसीलिए उसने अपने दास क़ुतुबुद्दीन ऐबक को, नमाज पढ़ने के लिऐ एक मस्जिद के निर्माण का आदेश दिया। गोरी ने यह भी आदेश दिया कि ढाई दिन के भीतर मस्जिद बनानी चाहिए। एक शिलालेख के अनुसार यह मस्जिद सन 1199 ई0 में बनकर तैयार हुई थी। क़ुतुबुद्दीन ऐबक के उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने मेहराबों और शिलालेखों के साथ एक जालीदार दीवार का निर्माण भी करवाया था। शिलालेखों में इल्तुतमिश और पर्यवेक्षक का नाम अहमद इब्न मुहम्मद अल- अरिद है।
इस मस्जिद के निर्माण में भी कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद की तरह ही ध्वस्त मन्दिर अथवा मठ के ध्वंशावशेषों का प्रयोग किया गया है। यह मस्जिद कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद की तुलना में अधिक बड़े आकार की एवं आकर्षक है। इस मस्जिद के आकार को कालान्तर में इल्तुतमिश द्वारा विस्तार दिया गया। इस मस्जिद में तीन स्तंभों का प्रयोग किया गया है जिसके ऊपर 20 फुट ऊँची छत का निर्माण किया गया है, इसमें पांच मेहराबदार दरवाजे भी बनवाये गए हैं। मुख्य दरवाजा सर्वाधिक ऊँचा है। मस्जिद के प्रत्येक कोने में चक्राकार एवं बाँसुरी के आकार की मीनारे निर्मित है।
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स्थापत्य विशेषताएँ और नामकरण विवाद
इस मस्जिद के निर्माण में भी मंदिरों के ध्वंसावशेषों का उपयोग हुआ है। इसमें तीन स्तंभ पंक्तियाँ हैं जिन पर 20 फुट ऊँची छत टिकी है और पाँच मेहराबदार द्वार हैं। मुख्य द्वार सबसे ऊँचा और आकर्षक है। इस मस्जिद के नाम को लेकर इतिहासकारो में विवाद है। इस मस्जिद के नाम पर सभी इतिहासकारो का मत अलग-अलग है। इसके नाम के विषय में जॉन मार्शल का कहना है कि “क्योंकि इस मस्जिद का निर्णय मात्र ढाई दिन में किया गया इसीलिए इस मस्जिद को अढाई दिन का झोपड़ा कहा जाता है।“ पर्सी ब्राउन का कहना है कि “ यहाँ एक झोपड़ी के पास प्राचीन काल में अढाई दिन का मेला लगता था, इस कारण इस इस स्थान को अढाई दिन का झोपड़ा कहा गया। एक पौराणिक कथा के अनुसार मनुष्य का जीवन पृथ्वी और ढाई दिन जा होता है, इसी कारण इसे ढाई दिन का झोपड़ा कहा गया। कुछ अन्य मान्यताएं है कि मराठा काल मे फ़क़ीर लोग उर्स का त्यौहार मानते थे और इस उर्स का आयोजन ढाई दिनों तक होता था इसीलिए इस मस्जिद का नाम अढाई दिन का झोपड़ा रखा गया। इसी प्रकार का मत पर्सी ब्राउन का भी है।
निष्कर्ष
क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में इंडो-इस्लामिक स्थापत्य की नींव रखी। उसकी इमारतें भारतीय सौंदर्य और इस्लामी भव्यता का अद्भुत मेल हैं। कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद, क़ुतुब मीनार और अढाई दिन का झोपड़ा न केवल स्थापत्य की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं, बल्कि ये मध्यकालीन भारत की सांस्कृतिक एकता और ऐतिहासिक परिवर्तन के प्रतीक भी हैं।
