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प्राचीन भारत के प्रसिद्ध और प्रभावशाली सम्राटों में हर्षवर्धन का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात जब उत्तर भारत अनेक छोटे राज्यों में विभाजित होकर अस्थिरता की स्थिति में था, तब हर्षवर्धन ने राजनीतिक एकता स्थापित करने का सफल प्रयास किया। उनके शासनकाल में प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ हुई और राज्य में शांति व स्थिरता का वातावरण बना। हर्षवर्धन न केवल एक कुशल शासक थे, बल्कि उन्होंने कला, साहित्य, धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रोत्साहन दिया। उनका युग भारतीय इतिहास में पुनर्जागरण और सांस्कृतिक उत्कर्ष का प्रतीक माना जाता है। नीचे दिया गया चित्र हर्षवर्धन के काल की इसी समृद्ध सांस्कृतिक और राजनीतिक विरासत को अभिव्यक्त करता है।

परिचय (Introduction)
हर्षवर्धन की उपलब्धियां प्राचीन भारतीय इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है। जिस समय हर्ष सिंहासन पर बैठा, उस समय भारत मे राजनीतिक एकता का अभाव था और सम्पूर्ण भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यो में विभक्त था। इन राज्यो में साम्राज्य विस्तार और आपसी द्वेष के कारण लगातार संघर्ष होते रहते थे। इनमे कोई भी ऐसा शक्तिशाली राज्य नही था जो भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांध सके। हर्ष के पूर्वजो का राज्य भी इतना शक्तिशाली नही था कि वह इस विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को समाप्त कर सके। ऐसी परिस्थितियों में किसी भी शासक के लिए शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करना सरल कार्य नही था।
हर्षवर्धन की उपलब्धियों का मूल्यांकन निम्नलिखित उपशीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है—-
(1) राजनीतिक उपलब्धियाँ (Political Achievements)
अत्यंत कठिन परिस्थितियों में हर्ष 16 वर्ष की अवस्था मे 606 ई0 में थानेश्वर का शासक बना। बंगाल के शासक शशांक और मालवा के शासक देवगुप्त ने मिलकर हर्ष के बहनोई ग्रहवर्मा की हत्या कर दी तथा बहन राज्यश्री को बंदी बना लिया। इसके बाद इन लोगो ने हर्ष के बड़े भाई राज्यवर्धन की भी हत्या कर दी।
इस प्रकार विरासत के रूप में हर्षवर्धन को थानेश्वर का एक छोटा सा राज्य मिला था, जो चारो ओर परम्परागत शत्रुओं से घिरा हुआ था। हर्ष की सबसे महत्वपूर्ण समस्या अपने भाई के हत्यारे बंगाल के शासक शशांक से बदला लेना। मालवा और बिहार तथा बंगाल के राज्यो ने सम्मिलित रूप से उसके बहनोई ग्रहवर्मा का वध किया था और उसकी बहन राज्यश्री को बंदी बना लिया था। इन सभी समस्याओं से निपटने के उद्देश्य से गद्दी पर बैठते ही उसने सैनिक अभियान प्रारम्भ किये। इस क्रम में उसने कामरूप के शासक भास्करवर्मा की सहायता से बंगाल पर आक्रमण किया और उसे अपने अधीन किया। तत्पश्चात उसने कन्नौज पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की और अपनी बहन राज्यश्री की ओर से शासन करने लगा और बाद में कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद उसने मगध और उड़ीसा पर भी अधिकार कर लिया।
पश्चिम भारत मे मालवा, गुर्जर एवं वल्लभी के शासको के साथ हर्ष के संघर्ष हुए किन्तु उपलब्ध स्रोतों के आधार पर वल्लभी के शासक ध्रुवसेन के साथ हर्ष के संघर्ष पर प्रकाश पड़ता है। हर्ष प्रारम्भ में सफल रहा किन्तु जल्दी ही गुर्जर एवं राज्यो की सहायता से वल्लभी ने अपनी शक्तिशाली स्थिति को प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात वैवाहिक संबंध द्वारा ध्रुवसेन ने हर्ष की पुत्री से विवाह करके इस परम्परागत शत्रुता को समाप्त किया।
दक्षिण की ओर हर्ष का सैनिक अभियान पूर्णतः असफल रहा। ह्वेनसांग के विवरणों एवं दक्षिण भारतीय स्रोतों से स्पष्ट होता है की चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय ने हर्ष को पराजित किया था एवं पुलकेशिन की मृत्यु के पश्चात भी हर्ष सिर्फ गंजाम जिले के कंगोड़ा स्थान पर ही अधिकार कर पाया था। इस प्रकार हर्ष का साम्राज्य मुख्यतः पूर्वी पंजाब, गंगा-यमुना दो-आब, बिहार, उड़ीसा एवं पश्चिमी बंगाल तक ही सीमित रहा।
एक कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी शासक के रूप में हर्ष प्राचीन इतिहास में श्रेष्ठ स्थान का अधिकारी है। कामरूप के साथ मैत्री हर्ष की दूरदर्शिता का परिचायक है क्योंकि वह भी शशांक विरोधी था। इसी प्रकार वल्लभी के साथ मैत्री संबंध स्थापित करना भी हर्ष के लिए फायदेमंद रहा क्योंकि वल्लभी, हर्ष एवं पुलकेशिन द्वितीय के साम्राज्यो के बीच मे आता था। अतः दक्षिण अभियान हेतु यह मैत्री आवश्य थी। कन्नौज को अपने साम्राज्य के अंतर्गत करना भी हर्ष की कूटनीतिज्ञता का परिचायक है।
(2) प्रशासनिक उपलब्धियाँ (Administrativen Achievements)
हर्ष की शासन व्यवस्था गुप्तो की प्रशासनिक नीति पर आधारित थी, अपनी आवश्यकतानुसार उसमे संशोधन एवं परिवर्तन किया गया। राजतंत्रात्मक व्यवस्था के अनुकूल हर्ष राज्य और शासन का प्रधान होता था। राज्य की समस्त शक्तियां उसी में केंद्रित होती थी। संवैधानिक रूप से वह सर्वशक्तिशाली एवं निरंकुश शासक था। परन्तु व्यवहारिक रुप से वह प्रजावत्सल शासक था। वह सदैव जनहित कार्यो में लगा रहता था। हर्ष ने शासन संचालन हेतु मंत्रिपरिषद का गठन किया था। इसके मंत्री को सचिव या आमात्य कहा जाता था। प्रशासन की सुविधा के लिए साम्राज्य को :भुक्ति’ में बांटा गया था जो उपरिक के अधीन होता था। भुक्ति का विभाजन :विषय’ (जिलो) में किया गया था, जो विषयपति के अधीन था। विषय को ग्रामो में विभाजित किया गया, जो ग्रामाक्षपटलिक के अधीन रहता था।
राज्य को विभिन्न स्रोतों से आय प्राप्त होती थी, जिसमे सबसे प्रमुख भूमि कर था, जो आमतौर पर उपज का 1/6 भाग था। उसके अलावा वन भी राजकीय आय के महत्वपूर्ण स्रोत थे। व्यापार, उद्योग, खदानों एवं अपराधियो से दण्ड के रूप में प्राप्त धन आदि आय के अन्य साधन थे।
हर्ष बड़ा महत्वकांक्षी सम्राट था, उसने सैनिक व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया। ह्वेनसांग हर्ष की सेना को चतुरंगिणी कहता है, जिससे आभास होता है कि उसकी सेना के चार अंग थे– पैदल, घुड़सवार, रथ सेना और हाथी की टुकड़ियां। किन्तु सामंतवाद के विकास के कारण सम्राट को सेना हेतु सामंतो से भी सहायता लेनी पड़ती थी। उसने कठोर न्याय व्यवस्था भी स्थापित की। शान्ति व्यवस्था हेतु पुलिस विभाग की भी स्थापना की गयी। पुलिस कर्मियों को ‘चाट’ एवं ‘भाट’ कहा जाता था।
(3) सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (Cultural Achievements)

हर्ष की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ भी महत्वपूर्ण है। हर्ष व्यक्तिगत रूप से महायान बौद्ध धर्म का समर्थक था एवं इसके प्रचार-प्रसार के लिए उसने कनिष्क और मिनेण्डर के समान ही ख्याति प्राप्त की। इसके बावजूद वह धार्मिक रुप से सहिष्णु था। इसका प्रमाण प्रयाग में हर पांच वर्ष पर होने वाली धार्मिक सभाओं में मिलता है, जहां पहले दिन बुद्ध, दूसरे दिन शिव, तीसरे दिन सूर्य की पूजा होती थी।
हर्ष प्राचीन भारत मे सबसे दानशील शासक के रुप में विख्यात है। वह प्रति पांचवे वर्ष प्रयाग में एक मेले का आयोजन करता था। जिसमे दीन-दुःखियो को बहुत धन दिया करता था। लोककल्याण कार्यो में उसने (हर्ष) अशोक महान का अनुसरण किया। उसने सदैव प्रजा के हित के कार्यो की ओर ध्यान दिया। वह प्रजा को अपने पुत्र के समान मानता था। और प्रत्येक समय उनके सुख का चिंतन तथा मनन किया करता था। यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कों का निर्माण कराया तथा उसके किनारे पेड़ एवं सरायों का निर्माण कराया और यात्रियों की सुविधा का विशेष ध्यान रखा। धार्मिक पुरोहितों के साथ-साथ गरीबो को भी विपुल धन राशि दान में दिए।
शिक्षा, साहित्य तथा कला के क्षेत्र में भी हर्ष की उपलब्धियां महत्वपूर्ण है। उसने इनके विकास तथा प्रसार में विशेष सहयोग प्रदान किया। वह विद्वानों का आदर करता था और उनको अपने दरबार में आश्रय प्रदान करता था। वह स्वयं एक प्रतिभाशाली लेखक था। उसने स्वयं संस्कृत भाषा मे उच्च कोटि के नाटकों की रचना की जो नागानन्द, रत्नावली और प्रियदर्शिका है। उसकी राज्यसभा में सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट को राज्याश्रय प्राप्त था जिसकी ‘हर्षचरित्र’ तथा ‘कादम्बरी’ नामक रचनाएँ संस्कृत भाषा के साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। उसके दरबार मे बाणभट्ट के अतिरिक्त कई विद्वान एवं लेखक निवास करते थे। उसने शिक्षा के प्रसार की ओर भी विशेष ध्यान दिया। बहुत से विदेशी विद्वान भारत मे शिक्षा प्राप्त करने आते थे। उस समय नालंदा शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र था।
इस समय कला के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व विकास हुआ।इस काल की कला में गुप्त काल की कला की प्रवृतियां तथा विशेषताएं विद्यमान थी। इसके नमूने आज भी विद्यमान है। बहुत से देवी-देवताओं की मूर्तियों तथा मन्दिरो व भवनों का निर्माण हुआ। अजन्ता की कुछ चित्रकारियां इस काल की महान देन है। इस समय संगीत भी उन्नत अवस्था मे था।
निष्कर्ष (Conclusion)
उपर्युक्त विवेचना के पश्चात यह कहा जा सकता है कि हर्ष की राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियाँ महत्वपूर्ण है। हर्ष की उपलब्धियों का महत्व इसिलिये और भी बढ़ जाता है क्योंकि उसने गुप्तो के बाद भारत मे प्रारम्भ हुई विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को रोककर भारत मे एक बार पुनः राजनीतिक एकीकरण की स्थापना किया और सम्पूर्ण उत्तरी भारत को एक छत्र राज्य में लाने का प्रयास किया, किन्तु उसे कुछ ही सफलता मिली। इसके बावजूद उसके सामने जो परिस्थितियां व्याप्त थी वैसी अवस्था मे भारत मे एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना एवं उस पर एक सुसंगठित एवं सुदृढ़ शासन संचालित करना कठिन था। उसने कन्नौज को पूर्ववर्ती पाटलिपुत्र की तरह राजधानी बनाकर अपने शासन की गतिविधियों का केन्द्र बनाया।
FAQ / PAQ (People Also Ask)
1. हर्षवर्धन की प्रमुख राजनीतिक उपलब्धियाँ क्या थीं?
उत्तर: हर्षवर्धन ने उस समय सत्ता संभाली जब उत्तर भारत कई छोटे राज्यों में विभाजित था। अपने कौशल और नेतृत्व क्षमता के बल पर उन्होंने कन्नौज को राजधानी बनाकर एक सशक्त साम्राज्य की नींव रखी। बंगाल, मगध, उड़ीसा और कन्नौज जैसे क्षेत्रों को अपने अधीन लाकर उन्होंने उत्तर भारत में स्थिरता और एकता स्थापित की। साथ ही, कामरूप और वल्लभी जैसे राज्यों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाकर उन्होंने राजनीतिक संतुलन और शांति बनाए रखी।
2. हर्षवर्धन का प्रशासन कैसा था?
उत्तर: हर्ष का शासन सुचारु और संगठित था, जिसकी जड़ें गुप्तकालीन प्रशासनिक परंपराओं में निहित थीं। राजा सर्वोच्च सत्ता का धारक होते हुए भी जनकल्याण को शासन का मूल उद्देश्य मानता था। राज्य को भुक्ति, विषय और ग्राम जैसे प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा गया था। राजस्व का प्रमुख स्रोत भूमि कर, व्यापारिक कर और उद्योगों से प्राप्त आय थी। उसकी सेना चतुरंगिणी थी — जिसमें पैदल, घुड़सवार, रथ और हाथी सेना शामिल थे।
3. हर्षवर्धन की सांस्कृतिक और धार्मिक नीतियाँ क्या थीं?
उत्तर: हर्षवर्धन मूलतः महायान बौद्ध धर्म का अनुयायी था, किन्तु वह सभी धर्मों के प्रति समान आदरभाव रखता था। प्रयाग में आयोजित ‘महामोक्ष सभा’ के माध्यम से उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता और पारस्परिक सम्मान का संदेश दिया। उन्होंने कला, शिक्षा और साहित्य के संरक्षण को अपना दायित्व माना तथा विद्वानों और कलाकारों को भरपूर प्रोत्साहन दिया।
4. साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में हर्षवर्धन का योगदान क्या था?
उत्तर: हर्षवर्धन न केवल एक महान शासक थे, बल्कि एक प्रतिभाशाली लेखक और नाटककार भी थे। उनकी प्रमुख संस्कृत कृतियाँ — नागानन्द, रत्नावली और प्रियदर्शिका — आज भी साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। उनके दरबार में कवि वाणभट्ट जैसे महान विद्वान थे, जिन्होंने हर्षचरित और कादम्बरी जैसी अमर कृतियाँ रचीं। इस काल में नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षा और बौद्ध अध्ययन का प्रमुख केंद्र था।
5. हर्षवर्धन को “गुप्तोत्तर काल का महान शासक” क्यों कहा जाता है?
उत्तर: गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद भारत में राजनीतिक अस्थिरता फैल गई थी। ऐसे कठिन समय में हर्षवर्धन ने उत्तर भारत को पुनः एकजुट किया और एक स्थायी शासन व्यवस्था स्थापित की। उनकी नीतियाँ धार्मिक सहिष्णुता, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और जनकल्याण पर आधारित थीं। इन कारणों से इतिहासकार उन्हें “गुप्तोत्तर काल का महान शासक” कहते हैं।
