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औरंगज़ेब की दक्षिण नीति (Aurangzeb Ki Dakshin Neeti) मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय माना जाता है। इस नीति के अंतर्गत उसने बीजापुर, गोलकुंडा और मराठा शक्तियों के विरुद्ध लंबे समय तक सैन्य अभियानों का संचालन किया। यह विषय UPSC, SSC, TGT-PGT तथा उच्च शिक्षा स्तर की परीक्षाओं में इतिहास के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण और उपयोगी साबित होता है।

परिचय : औरंगजेब की दक्कन नीति
मुगल सम्राट औरंगजेब एक बड़ा ही महत्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी शासक था। वह उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तर-पूर्वी और दक्षिण अभियानों से अपने साम्राज्य को और अधिक विस्तृत करना चाहता था। इन सभी अभियानों में सबसे लम्बा अभियान दक्षिण अभियान था। प्रारम्भ से ही मुगल दक्षिण भारत मे अपनी स्थिति सुदृढ़ करना चाहते थे परन्तु वे सफल नही हो पाए थे। अपने पूर्वजों की असफलताओं को ध्यान में रखते हुए उसने बीजापुर, गोलकुंडा और मराठों को समाप्त कर दक्कन में मुगल सत्ता मजबूत करने का प्रयास किया। सम्पूर्ण भारत पर एक-छत्र साम्राज्य स्थापित करने के लिए औरंगजेब ने अपनी सारी शक्ति दक्कन अभियान में झोंक दी
औरंगजेब की दक्षिण नीति के उद्देश्य
औरंगजेब की दक्षिण नीति के उद्देश्य निम्नलिखित थे–
1. शिया विरोध: औरंगजेब कट्टर सुन्नी मसलमान था। वह शिया मुसलमानों से घृणा करता था। बीजापुर और गोलकुण्डा के शासक शिया ही थे।
2. पूर्वजों के अधूरे कार्य पूरे करना: अपने पूर्वजों के अधूरे कार्यो को पूरा करना।
3 खिराज वसूली: दक्षिण के सुल्तानों ने कई वर्षों से खिराज कर अदा न किया था।
4. मराठा शक्ति का उभार: दक्षिण में शिवजी के नेतृत्व में मराठा शक्ति बढ़ रही थी। अतः मराठा शक्ति के विनाश के लिये इन राज्यो का विनाश आवश्यक था।
5. मुगल विरोधियों को शरण: दक्षिण में मुगल साम्राज्य का विस्तार करना।
6. साम्राज्य विस्तार: दक्षिण के राज्य मुगल विरोधियो के शरणालय बने हुए थे और विद्रोही अकबर ने दक्षिण पहुंचकर मराठो की सहायता से खलवली मचा दी थी।
औरंगजेब को उत्तर भारत के विद्रोह को दबाकर जब फुरसत मिली तो अपने इन्ही उद्देश्यो की पूर्ति के लिए उसे दक्षिण की तीन शक्तियों से संघर्ष करना पड़ा।
Aurangzeb Ki Dakshin Neeti के प्रमुख संघर्ष
1. बीजापुर पर विजय (1686 ई.)

1672 ई0 में बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु के पश्चात उसका नाबालिग पुत्र सिकंदर बीजापुर की गद्दी पर बैठा। 1676 ई0 में मुगल सेनापति बहादुर खां ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया। परन्तु अभियान असफल रहा। इसके पश्चात 1679 ई0 में दिलेर खां को दक्षिण के सूबेदार बनाकर बीजापुर पर आक्रमण करने के लिए भेज गया। परन्तु उसे भी सफलता न मिली। 1685 ई0 में औरंगजेब ने स्वयं बीजापुर पर आक्रमण किया। एक वर्ष तक बीजापुर का घेरा चलता रहा। अंततः 1686 ई0 में सुल्तान सिकंदर ने आत्मसमर्पण कर दिया। औरंगजेब ने उसे एक लाख वार्षिक पेंशन देकर दौलताबाद के किले में बंद कर दिया और उसका राज्य मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
2. गोलकुंडा पर अधिकार (1687 ई.)
बीजापुर के पश्चात औरंगजेब की दृष्टि गोलकुण्डा पर पड़ी। इस राज्य पर आक्रमण के तत्कालीन कारण निम्नलिखित थे —
1. गोलकुण्डा का शासक अब्दुल हसन एक विलासी शासक था, उसने शासन के कार्यो की जिम्मेदारी अदन्ना और मदन्ना नामक ब्राह्मणो के हाथ मे सौंप रखी थी।
2. 1656 ई0 में हुई संधि(मुगल सम्राट और गोलकुण्डा के बीच) को मानने से मना कर दिया था।
3. उसने मुंगलो के विरुद्ध बीजापुर के सुल्तान की सहायता की थी।
यह सब औरंगजेब जैसे शासक के लिए बर्दाश से बाहर था। उसने शहजादा मुअज्जम को गोलकुण्डा पर अधिकार करने के लिए भेजा। सुल्तान अब्दुल हसन ने डर कर मुंगलो की सभी शर्तो को मानकर संधि कर ली। परन्तु कालान्तर में सुल्तान ने संधि की अवहेलना करने फिर प्रारम्भ कर दिया,जिस कारण स्वयं औरंगजेब ने 1687 ई0 में दुर्ग पर अधिकार करके गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
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3. मराठों से संघर्ष

शिवजी की दक्षिण में बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने के लिए औरंगजेब ने जयसिंह को दक्षिण भेजा। जयसिंह और शिवजी के मध्य 22 जून 1665 ई0 को पुरन्दर की संधि हुई। संधि की शर्तों के तहत अपने कुछ किले मुंगलो को देने पड़े और अपने पुत्र शम्भाजी को मुगल सेवा में भेजा,तथा जयसिंह के कहने पर 1666 ई0 में स्वयं भी औरंगजेब के समक्ष मुगल दरबार मे प्रस्तुत हुए। यहां पर शिवजी को कैद कर लिया गया, लेकिन अपनी कूटनीतिक चाल से शिवजी यहां से फरार हो गये। शिवजी ने रायगढ़ में 16 जून 1774 ई0 में अपना राज्याभिषेक करवाया। 14 अप्रैल 1680 ई0 में इनकी मृत्यु के बाद उनका पुत्र शम्भाजी मराठा शासक बना। औरंगजेब ने 1 मार्च 1689 ई0 में शम्भाजी की हत्या कर रायगढ़ पर अधिकार कर लिया। शम्भाजी के बाद उसके पुत्र राजाराम ने मुंगलो से संघर्ष जारी रखा। 1700 ई0 मे राजाराम की भी मृत्यु हो गई। इसके बाद राजाराम की विधवा ताराबाई ने मराठो का नेतृत्व संभाला और मुंगलो से संघर्ष जारी रखा। उसने अनेक दुर्गों पर अधिकार कर लिया। औरंगजेब अधिक दिनों तक जीवित न रहा और 5 मार्च 1707 ई0 को दक्षिण में ही उसकी मृत्यु हो गई। औरंगजेब को मराठो के संघर्ष में काफी धन-जन की हानि सहनी पड़ी।
औरंगजेब की दक्षिण नीति के परिणाम
मुख्य प्रभाव (Results & Consequences)
1. उत्तर भारत मे अव्यवस्था: औरंगजेब ने अपने शासन काल के अंतिम 25 वर्ष दक्षिण भारत के युद्धों में ही व्यतीत किये थे, इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर भारत मे अराजकता व अनुशासनहीनता फैल गई। चारो ओर विद्रोह की बाढ़ सी आ गई और केंद्रीय शासन शिथिल हो गया।
2. मराठों की शक्ति में वृद्धि: बीजापुर और गोलकुण्डा के समाप्त हो जाने से मराठो को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर प्राप्त हो गया। यदि औरंगजेब द्वारा इन राज्यो का विलय मुगल साम्राज्य में न किया होता, तो यही राज्य मराठो के पतन में सहायक सिद्ध हो सकते थे।
3. मुगल सेना का पतन: दक्षिण के लगातार युद्धों से मुंगलो की सैनिक शक्ति को बड़ा अघात लगा। असंख्य सैनिक इन युद्धों में मारे गये। यदुनाथ सरकार का कथन हैं कि “दक्षिण के युद्धों में प्रतिवर्ष एक लाख व्यक्ति तथा तीन लाख घोड़े आदि पशुओं का विनाश हो जाता था।”
4. मारवाड़ का स्वतंत्र हो जाना: दक्षिण के युद्धों में व्यस्त रहने के कारण औरंगजेब मारवाड़ की ओर पूरा ध्यान न दे सका और मारवाड़ स्वतंत्र हो गया और अजीत सिंह यहां का शासक नियुक्त हुआ।
5. राजकोष खाली: दक्षिण के चलने वाले लगातार युद्धों के कारण औरंगजेब को बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ा। फलस्वरूप उसका राजकोष रिक्त हो गया। सैनिकों को तीन-तीन वषो तक वेतन न मिल सका। वेतन न मिलने से सैनिको में असंतोष व्याप्त हो गया।
6. कृषि और व्यापार को क्षति: इन युद्धों का प्रभाव कृषि व उद्योग-धंधों पर भी पड़ा। असंख्य खेत उजाड़ दिए गये और उद्योग धंधे नष्ट हो गये। व्यापार को भी बहुत बड़ा धक्का लगा और साम्राज्य की आर्थिक स्थिति अत्यधिक शोचनीय हो गयी।
7. सांस्कृतिक क्षति: दक्षिण के युद्धों के कारण साहित्य और कला की उन्नति अवरुद्ध हो गई, क्योकि किसी भी साहित्यकार एवं कलाकार को राज्य में संरक्षण प्राप्त न हो सका।
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निष्कर्ष
इस प्रकार Aurangzeb Ki Dakshin Neeti असफल सिद्ध हुई । यदुनाथ सरकार ने लिखा है “जिस प्रकार स्पेन के नासूर ने नेपोलियन का नाश कर दिया, उसी प्रकार दक्षिण के नासूर ने औरंगजेब का विनाश कर दिया।” इस प्रकार दक्षिण अभियान औरंगजेब के लिए कब्र सिद्ध हुआ। उसने दक्षिण विजय कर साम्राज्य विस्तार तो अवश्य किया,परन्तु उसे कायम रखने में असफल रहा। औरंगजेब ने अपने पीछे विशाल एवं आन्तरिक रूप से कमजोर साम्राज्य छोड़ा। इसिलिए अगर ऐसा कहा जाय कि औरंगजेब की दक्षिण नीति ने मुगल साम्राज्य के पतन के कारणों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो अनुचित न होगा।
FAQs – Aurangzeb Ki Dakshin Neeti in Hindi
Q1. औरंगज़ेब की दक्षिण नीति क्या थी?
उत्तर: औरंगज़ेब की दक्षिण नीति का उद्देश्य मुगल साम्राज्य का विस्तार दक्कन क्षेत्र तक ले जाना था। इसके तहत उसने बीजापुर, गोलकुंडा तथा मराठा शक्ति को परास्त कर दक्षिण भारत को पूरी तरह मुगल प्रशासन के अधीन करने की रणनीति अपनाई।
Q2. औरंगज़ेब की दक्षिण नीति के मुख्य उद्देश्य क्या थे?
उत्तर: इस नीति के प्रमुख लक्ष्य थे—
- बीजापुर और गोलकुंडा जैसे शिया सुल्तानतों का अंत करना,
- उभरती हुई मराठा शक्ति को नियंत्रित करना,
- दक्षिणी राज्यों से नियमित कर प्राप्त करना,
- तथा सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर मुगल प्रभुत्व स्थापित करना।
Q3. Aurangzeb Ki Dakshin Neeti में बीजापुर और गोलकुंडा क्यों लक्ष्य बनाए गए?
उत्तर: बीजापुर और गोलकुंडा दोनों शिया शासन वाले राज्य थे और अक्सर मुगल सत्ता का विरोध करते थे। वे न केवल कर चुकाने से बचते थे बल्कि कई बार मराठों को सहयोग भी प्रदान करते थे। औरंगज़ेब की सुन्नी विचारधारा तथा साम्राज्य-विस्तार नीति के कारण वे उसके प्रमुख लक्ष्य बने और अंततः मुगल शासन में मिला दिए गए।
Q4. मराठों के साथ संघर्ष ने Aurangzeb Ki Dakshin Neeti को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर: मराठों की गुरिल्ला युद्धनीति ने मुगल सेना को गंभीर रूप से कमजोर किया। लगातार युद्धों के चलते समय, धन और सैनिक शक्ति—तीनों का भारी नुकसान हुआ। इसी कारण दक्षिण अभियानों की अवधि बहुत बढ़ गई और औरंगज़ेब की पूरी योजना अपेक्षित सफलता से दूर होती चली गई।
Q5. औरंगज़ेब की दक्षिण नीति के प्रमुख परिणाम क्या रहे?
उत्तर: इस नीति के चलते राजकोष पर अत्यधिक भार पड़ा, प्रशासनिक ढांचा कमजोर हुआ और उत्तर भारत में विद्रोहों की संख्या बढ़ गई। लंबे युद्धों से मुगल सेना थक गई, जबकि मराठों की शक्ति और प्रभाव तेजी से बढ़ा। इसी कारण इतिहास में Aurangzeb Ki Dakshin Neeti को मुगल साम्राज्य के पतन का एक निर्णायक कारण माना जाता है।
